कविश्री कल्याणकुमार जैन ‘शशि’
हे! पार्श्वनाथ करुणानिधान महिमा महान् मंगलकारी |
शिवभर्तारी सुखभंडारी सर्वज्ञ सुखारी त्रिपुरारी ||
तुम धर्मसेत करुणानिकेत आनंदहेत अतिशयधारी |
तुम चिदानंद आनंदकंद दु:ख-द्वंद-फंद संकटहारी ||
आवाहन करके आज तुम्हें अपने मन में पधराऊँगा |
अपने उर के सिंहासन पर गद-गद हो तुम्हें बिठाऊँगा ||
मेरा निर्मल-मन टेर रहा हे नाथ! हृदय में आ जाओ |
मेरे सूने मन-मंदिर में पारस भगवान् समा जाओ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्! (आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:!(स्थापनम्)
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)
भव वन में भटक रहा हूँ मैं, भर सकी न तृष्णा की खार्इ |
भवसागर के अथाह दु:ख में, सुख की जल-बिंदु नहीं पार्इ ||
जिस भाँति आपने तृष्णा पर, जय पाकर तृषा बुझार्इ है |
अपनी अतृप्ति पर अब तुमसे, जय पाने की सुधि आर्इ है ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
क्रोधित हो क्रूर कमठ ने जब, नभ से ज्वाला बरसार्इ थी |
उस आत्मध्यान की मुद्रा में, आकुलता तनिक न आर्इ थी ||
विघ्नों पर बैर-विरोधों पर, मैं साम्यभाव धर जय पाऊँ |
मन की आकुलता मिट जाये, ऐसी शीतलता पा जाऊँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
तुमने कर्मों पर जय पाकर, मोती सा जीवन पाया है |
यह निर्मलता मैं भी पाऊँ, मेरे मन यही समाया है ||
यह मेरा अस्तव्यस्त जीवन, इसमें सुख कहीं न पाता हूँ |
मैं भी अक्षय पद पाने को, शुभ अक्षत तुम्हें चढ़ाता हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
अध्यात्मवाद के पुष्पों से, जीवन फुलवारी महकार्इ |
जितना-जितना उपसर्ग सहा, उतनी-उतनी दृढ़ता आर्इ ||
मैं इन पुष्पों से वंचित हूँ, अब इनको पाने आया हूँ |
चरणों पर अर्पित करने को, कुछ पुष्प संजोकर लाया हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
जय पाकर चपल इन्द्रियों पर, अंतर की क्षुधा मिटा डाली |
अपरिग्रह की आलोक शक्ति, अपने अंदर ही प्रगटा ली ||
भटकाती फिरती क्षुधा मुझे, मैं तृप्त नहीं हो पाया हूँ |
इच्छाओं पर जय पाने को, मैं शरण तुम्हारी आया हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
अपने अज्ञान अंधेरे में, वह कमठ फिरा मारा-मारा |
व्यन्तर विक्रियाधारी था पर, तप के उजियारे से हारा ||
मैं अंधकार में भटक रहा, उजियारा पाने आया हूँ |
जो ज्योति आप में दर्शित है, वह ज्योति जगाने आया हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
तुमने तप के दावानल में, कर्मों की धूप जलार्इ है |
जो सिद्ध-शिला तक जा पहुँची, वह निर्मल गंध उड़ार्इ है ||
मैं कर्म बंधनों में जकड़ा, भव-बंधन से घबराया हूँ |
वसु कर्म दहन के लिये तुम्हें, मैं धूप चढ़ाने आया हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
तुम महा तपस्वी शांतिमूर्ति, उपसर्ग तुम्हें न डिगा पाये |
तप के फल ने पद्मावति अरु, इन्द्रों के आसन कंपाये ||
ऐसे उत्तम फल की आशा मैं, मन में उमड़ी पाता हूँ |
ऐसा शिव सुख फल पाने को, फल की शुभ भेंट चढ़ाता हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
संघर्षो में उपसर्गो में, तुमने समता का भाव धरा |
आदर्श तुम्हारा अमृत-बन, भक्तों के जीवन में बिखरा ||
मैं अष्टद्रव्य से पूजा का, शुभ अर्घ्य बना कर लाया हूँ |
जो पदवी तुमने पार्इ है, मैं भी उस पर ललचाया हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
पंचकल्याणक- अर्घ्यावली
(अर्ध नरेंद्र छंद)
बैशाख-कृष्ण-दुतिया के दिन, तुम वामा के उर में आये|
श्री अश्वसेन-नृप के घर में, आनंद भरे मंगल छाये ||
ओं ह्रीं वैशाख-कृष्ण-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
जब पौष-कृष्ण-एकादशि को, धरती पर नया प्रसून खिला |
भूले भटके भ्रमते जग को, आत्मोन्नति का आलोक मिला ||
ओं ह्रीं पौषकृष्ण-एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
एकादशि- पौष-कृष्ण के दिन, तुमने संसार अथिर पाया |
दीक्षा लेकर आध्यात्मिक पथ, तुमने तप द्वारा अपनाया ||
ओं ह्रीं पौषकृष्ण -एकादशीदिने तपोमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३।
अहिच्छत्र-धरा पर जीभर कर, की क्रूर कमठ ने मनमानी |
तब कृष्ण-चैत्र-चतुर्थी को, पद प्राप्त किया केवलज्ञानी ||
यह वंदनीय हो गर्इ धरा, दश भव का बैरी पछताया |
देवों ने जय जयकारों से, सारा भूमंडल गुँजाया ||
ओं ह्रीं चैत्रकृष्ण-चतुर्थीदिवसे श्रीअहिच्छत्रातीर्थे ज्ञानसाम्राज्य-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्यं३ा निर्वपामीति स्वाहा ।४।
श्रावण शुक्ला सप्तमि के दिन, सम्मेद-शिखर ने यश पाया |
‘सुवरणभद्र’ कूट से जब, शिव मुक्तिरमा को परिणाया ||
ओं ह्रीं श्रावणशुक्ल-सप्तम्यां सम्मेदशिखरस्य सुवर्णभद्रकूटात् मोक्षमंगल- मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
जयमाला
(तर्ज : राधेश्याम)
सुरनर किन्नर गणधर फणधर, योगीश्वर ध्यान लगाते हैं |
भगवान् तुम्हारी महिमा का, यशगान मुनीश्वर गाते हैं ||१||
जो ध्यान तुम्हारा ध्याते हैं, दु:ख उनके पास न आते हैं |
जो शरण तुम्हारी रहते हैं, उनके संकट कट जाते हैं ||२||
तुम कर्मदली तुम महाबली, इन्द्रिय सुख पर जय पार्इ है |
मैं भी तुम जैसा बन जाऊँ, मन में यह आज समार्इ है ||३||
तुमने शरीर औ’ आत्मा के, अंतर स्वभाव को जाना है |
नश्वर शरीर का मोह तजा, निश्चय स्वरूप पहिचाना है ||४||
तुम द्रव्य-मोह औ’ भाव मोह, इन दोनों से न्यारे-न्यारे |
जो पुद्गल के निमित्त कारण, वे राग-द्वेष तुम से हारे ||५||
तुम पर निर्जर वन में बरसे, ओले-शोले पत्थर-पानी |
आलोक तपस्या के आगे, चल सकी न शठ की मनमानी ||६||
यह सहन शक्ति का ही बल है, जो तप के द्वारा आया था |
जिसने स्वर्गों में देवों के, सिंहासन को कंपाया था ||७||
‘अहि’ का स्वरूप धरकर तत्क्षण, धरणेन्द्र देवता आया था |
ध्यानस्थ आप के ऊपर प्रभु, फण मंडप बनकर छाया था ||८||
उपसर्ग कमठ का नष्ट किया, मस्तक पर फण मंडप रचकर |
पद्मादेवी ने उठा लिया, तुमको सिर के सिंहासन पर ||९||
तप के प्रभाव से देवों ने, व्यंतर की माया विनशार्इ |
पर प्रभो आपकी मुद्रा में, तिलमात्र न आकुलता आर्इ ||१०||
उपसर्ग का आतंक तुम्हें, हे प्रभु! तिलभर न डिगा पाया |
अपनी विडम्बना पर बैरी, असफल हो मन में पछताया ||११||
शठ कमठ बैर के वशीभूत, भौतिक बल पर बौराया था |
अध्यात्म-आत्मबल का गौरव, वह मूर्ख समझ न पाया था ||१२||
दश भव तक जिसने बैर किया, पीड़ायें देकर मनमानी |
फिर हार मानकर चरणों में, झुक गया स्वयं वह अभिमानी ||१३||
यह बैर महा दु:खदायी है, यह बैर न बैर मिटाता है |
यह बैर निरंतर प्राणी को, भवसागर में भटकाता है ||१४||
जिनको भव-सुख की चाह नहीं, दु:ख से न जरा भय खाते हैं |
वे सर्व-सिद्धियों को पाकर, भवसागर से तिर जाते हैं ||१५||
जिसने भी शुद्ध मनोबल से, ये कठिन परीषह झेली हैं |
सब ऋद्धि-सिद्धियाँ नत होकर, उनके चरणों पर खेली हैं ||१६||
जो निर्विकल्प चैतन्यरूप, शिव का स्वरूप तुमने पाया |
ऐसा पवित्र पद पाने को, मेरा अंतर मन ललचाया ||१७||
कार्माण-वर्गणायें मिलकर, भव वन में भ्रमण कराती हैं |
जो शरण तुम्हारी आते हैं, ये उनके पास न आती हैं ||१८||
तुमने सब बैर विरोधों पर, समदर्शी बन जय पार्इ है |
मैं भी ऐसी समता पाऊँ,यह मेरे हृदय समार्इ है ||१९||
अपने समान ही तुम सबका, जीवन विशाल कर देते हो |
तुम हो तिखाल वाले बाबा, जग को निहाल कर देते हो ||२०||
तुम हो त्रिकाल दर्शी तुमने, तीर्थंकर का पद पाया है |
तुम हो महान् अतिशय धारी, तुम में आनंद समाया है ||२१||
चिन्मूरति आप अनंतगुणी, रागादि न तुमको छू पाये |
इस पर भी हर शरणागत, मन-माने सुख साधन पाये ||२२||
तुम रागद्वेष से दूर-दूर, इनसे न तुम्हारा नाता है |
स्वयमेव वृक्ष के नीचे जग, शीतल छाया पा जाता है ||२३||
अपनी सुगन्ध क्या फूल कहीं, घर-घर आकर बिखराते हैं!
सूरज की किरणों को छूकर, सुमन स्वयं खिल जाते हैं ||२४||
भौतिक पारस मणि तो केवल, लोहे को स्वर्ण बनाती है |
हे पार्श्व प्रभो! तुमको छूकर, आत्मा कुंदन बन जाती है ||२५||
तुम सर्वशक्तिधारी हो प्रभु, ऐसा बल मैं भी पाऊँगा |
यदि यह बल मुझको भी दे दो, फिर कुछ न माँगने आऊँगा ||२६||
कह रहा भक्ति के वशीभूत, हे दयासिन्धु! स्वीकारो तुम |
जैसे तुम जग से पार हुये, मुझको भी पार उतारो तुम ||२७||
जिसने भी शरण तुम्हारी ली, वह खाली न रह पाया है |
अपनी अपनी आशाओं का, सबने वाँछित फल पाया है ||२८||
बहुमूल्य सम्पदायें सारी, ध्याने वालों ने पार्इ हैं |
पारस के भक्तों पर निधियाँ, स्वयमेव सिमटकर आर्इ हैं ||२९||
जो मन से पूजा करते हैं, पूजा उनको फल देती है
प्रभु पूजा भक्त पुजारी के, सारे संकट हर लेती है ||३०||
जो पथ तुमने अपनाया है, वह सीधा शिव को जाता है |
जो इस पथ का अनुयायी है,वह परम मोक्षपद पाता है |३१|
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्यंसी निर्वपामीति स्वाहा ।
(दोहा)
पार्श्वनाथ-भगवान् को, जो पूजे धर ध्यान |
उसे लोक-परलोक के, मिलें सकल वरदान ||
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
हे! पार्श्वनाथ करुणानिधान महिमा महान् मंगलकारी |
शिवभर्तारी सुखभंडारी सर्वज्ञ सुखारी त्रिपुरारी ||
तुम धर्मसेत करुणानिकेत आनंदहेत अतिशयधारी |
तुम चिदानंद आनंदकंद दु:ख-द्वंद-फंद संकटहारी ||
आवाहन करके आज तुम्हें अपने मन में पधराऊँगा |
अपने उर के सिंहासन पर गद-गद हो तुम्हें बिठाऊँगा ||
मेरा निर्मल-मन टेर रहा हे नाथ! हृदय में आ जाओ |
मेरे सूने मन-मंदिर में पारस भगवान् समा जाओ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्! (आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:!(स्थापनम्)
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)
भव वन में भटक रहा हूँ मैं, भर सकी न तृष्णा की खार्इ |
भवसागर के अथाह दु:ख में, सुख की जल-बिंदु नहीं पार्इ ||
जिस भाँति आपने तृष्णा पर, जय पाकर तृषा बुझार्इ है |
अपनी अतृप्ति पर अब तुमसे, जय पाने की सुधि आर्इ है ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
क्रोधित हो क्रूर कमठ ने जब, नभ से ज्वाला बरसार्इ थी |
उस आत्मध्यान की मुद्रा में, आकुलता तनिक न आर्इ थी ||
विघ्नों पर बैर-विरोधों पर, मैं साम्यभाव धर जय पाऊँ |
मन की आकुलता मिट जाये, ऐसी शीतलता पा जाऊँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
तुमने कर्मों पर जय पाकर, मोती सा जीवन पाया है |
यह निर्मलता मैं भी पाऊँ, मेरे मन यही समाया है ||
यह मेरा अस्तव्यस्त जीवन, इसमें सुख कहीं न पाता हूँ |
मैं भी अक्षय पद पाने को, शुभ अक्षत तुम्हें चढ़ाता हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
अध्यात्मवाद के पुष्पों से, जीवन फुलवारी महकार्इ |
जितना-जितना उपसर्ग सहा, उतनी-उतनी दृढ़ता आर्इ ||
मैं इन पुष्पों से वंचित हूँ, अब इनको पाने आया हूँ |
चरणों पर अर्पित करने को, कुछ पुष्प संजोकर लाया हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
जय पाकर चपल इन्द्रियों पर, अंतर की क्षुधा मिटा डाली |
अपरिग्रह की आलोक शक्ति, अपने अंदर ही प्रगटा ली ||
भटकाती फिरती क्षुधा मुझे, मैं तृप्त नहीं हो पाया हूँ |
इच्छाओं पर जय पाने को, मैं शरण तुम्हारी आया हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
अपने अज्ञान अंधेरे में, वह कमठ फिरा मारा-मारा |
व्यन्तर विक्रियाधारी था पर, तप के उजियारे से हारा ||
मैं अंधकार में भटक रहा, उजियारा पाने आया हूँ |
जो ज्योति आप में दर्शित है, वह ज्योति जगाने आया हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
तुमने तप के दावानल में, कर्मों की धूप जलार्इ है |
जो सिद्ध-शिला तक जा पहुँची, वह निर्मल गंध उड़ार्इ है ||
मैं कर्म बंधनों में जकड़ा, भव-बंधन से घबराया हूँ |
वसु कर्म दहन के लिये तुम्हें, मैं धूप चढ़ाने आया हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
तुम महा तपस्वी शांतिमूर्ति, उपसर्ग तुम्हें न डिगा पाये |
तप के फल ने पद्मावति अरु, इन्द्रों के आसन कंपाये ||
ऐसे उत्तम फल की आशा मैं, मन में उमड़ी पाता हूँ |
ऐसा शिव सुख फल पाने को, फल की शुभ भेंट चढ़ाता हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
संघर्षो में उपसर्गो में, तुमने समता का भाव धरा |
आदर्श तुम्हारा अमृत-बन, भक्तों के जीवन में बिखरा ||
मैं अष्टद्रव्य से पूजा का, शुभ अर्घ्य बना कर लाया हूँ |
जो पदवी तुमने पार्इ है, मैं भी उस पर ललचाया हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
पंचकल्याणक- अर्घ्यावली
(अर्ध नरेंद्र छंद)
बैशाख-कृष्ण-दुतिया के दिन, तुम वामा के उर में आये|
श्री अश्वसेन-नृप के घर में, आनंद भरे मंगल छाये ||
ओं ह्रीं वैशाख-कृष्ण-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
जब पौष-कृष्ण-एकादशि को, धरती पर नया प्रसून खिला |
भूले भटके भ्रमते जग को, आत्मोन्नति का आलोक मिला ||
ओं ह्रीं पौषकृष्ण-एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
एकादशि- पौष-कृष्ण के दिन, तुमने संसार अथिर पाया |
दीक्षा लेकर आध्यात्मिक पथ, तुमने तप द्वारा अपनाया ||
ओं ह्रीं पौषकृष्ण -एकादशीदिने तपोमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३।
अहिच्छत्र-धरा पर जीभर कर, की क्रूर कमठ ने मनमानी |
तब कृष्ण-चैत्र-चतुर्थी को, पद प्राप्त किया केवलज्ञानी ||
यह वंदनीय हो गर्इ धरा, दश भव का बैरी पछताया |
देवों ने जय जयकारों से, सारा भूमंडल गुँजाया ||
ओं ह्रीं चैत्रकृष्ण-चतुर्थीदिवसे श्रीअहिच्छत्रातीर्थे ज्ञानसाम्राज्य-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्यं३ा निर्वपामीति स्वाहा ।४।
श्रावण शुक्ला सप्तमि के दिन, सम्मेद-शिखर ने यश पाया |
‘सुवरणभद्र’ कूट से जब, शिव मुक्तिरमा को परिणाया ||
ओं ह्रीं श्रावणशुक्ल-सप्तम्यां सम्मेदशिखरस्य सुवर्णभद्रकूटात् मोक्षमंगल- मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
जयमाला
(तर्ज : राधेश्याम)
सुरनर किन्नर गणधर फणधर, योगीश्वर ध्यान लगाते हैं |
भगवान् तुम्हारी महिमा का, यशगान मुनीश्वर गाते हैं ||१||
जो ध्यान तुम्हारा ध्याते हैं, दु:ख उनके पास न आते हैं |
जो शरण तुम्हारी रहते हैं, उनके संकट कट जाते हैं ||२||
तुम कर्मदली तुम महाबली, इन्द्रिय सुख पर जय पार्इ है |
मैं भी तुम जैसा बन जाऊँ, मन में यह आज समार्इ है ||३||
तुमने शरीर औ’ आत्मा के, अंतर स्वभाव को जाना है |
नश्वर शरीर का मोह तजा, निश्चय स्वरूप पहिचाना है ||४||
तुम द्रव्य-मोह औ’ भाव मोह, इन दोनों से न्यारे-न्यारे |
जो पुद्गल के निमित्त कारण, वे राग-द्वेष तुम से हारे ||५||
तुम पर निर्जर वन में बरसे, ओले-शोले पत्थर-पानी |
आलोक तपस्या के आगे, चल सकी न शठ की मनमानी ||६||
यह सहन शक्ति का ही बल है, जो तप के द्वारा आया था |
जिसने स्वर्गों में देवों के, सिंहासन को कंपाया था ||७||
‘अहि’ का स्वरूप धरकर तत्क्षण, धरणेन्द्र देवता आया था |
ध्यानस्थ आप के ऊपर प्रभु, फण मंडप बनकर छाया था ||८||
उपसर्ग कमठ का नष्ट किया, मस्तक पर फण मंडप रचकर |
पद्मादेवी ने उठा लिया, तुमको सिर के सिंहासन पर ||९||
तप के प्रभाव से देवों ने, व्यंतर की माया विनशार्इ |
पर प्रभो आपकी मुद्रा में, तिलमात्र न आकुलता आर्इ ||१०||
उपसर्ग का आतंक तुम्हें, हे प्रभु! तिलभर न डिगा पाया |
अपनी विडम्बना पर बैरी, असफल हो मन में पछताया ||११||
शठ कमठ बैर के वशीभूत, भौतिक बल पर बौराया था |
अध्यात्म-आत्मबल का गौरव, वह मूर्ख समझ न पाया था ||१२||
दश भव तक जिसने बैर किया, पीड़ायें देकर मनमानी |
फिर हार मानकर चरणों में, झुक गया स्वयं वह अभिमानी ||१३||
यह बैर महा दु:खदायी है, यह बैर न बैर मिटाता है |
यह बैर निरंतर प्राणी को, भवसागर में भटकाता है ||१४||
जिनको भव-सुख की चाह नहीं, दु:ख से न जरा भय खाते हैं |
वे सर्व-सिद्धियों को पाकर, भवसागर से तिर जाते हैं ||१५||
जिसने भी शुद्ध मनोबल से, ये कठिन परीषह झेली हैं |
सब ऋद्धि-सिद्धियाँ नत होकर, उनके चरणों पर खेली हैं ||१६||
जो निर्विकल्प चैतन्यरूप, शिव का स्वरूप तुमने पाया |
ऐसा पवित्र पद पाने को, मेरा अंतर मन ललचाया ||१७||
कार्माण-वर्गणायें मिलकर, भव वन में भ्रमण कराती हैं |
जो शरण तुम्हारी आते हैं, ये उनके पास न आती हैं ||१८||
तुमने सब बैर विरोधों पर, समदर्शी बन जय पार्इ है |
मैं भी ऐसी समता पाऊँ,यह मेरे हृदय समार्इ है ||१९||
अपने समान ही तुम सबका, जीवन विशाल कर देते हो |
तुम हो तिखाल वाले बाबा, जग को निहाल कर देते हो ||२०||
तुम हो त्रिकाल दर्शी तुमने, तीर्थंकर का पद पाया है |
तुम हो महान् अतिशय धारी, तुम में आनंद समाया है ||२१||
चिन्मूरति आप अनंतगुणी, रागादि न तुमको छू पाये |
इस पर भी हर शरणागत, मन-माने सुख साधन पाये ||२२||
तुम रागद्वेष से दूर-दूर, इनसे न तुम्हारा नाता है |
स्वयमेव वृक्ष के नीचे जग, शीतल छाया पा जाता है ||२३||
अपनी सुगन्ध क्या फूल कहीं, घर-घर आकर बिखराते हैं!
सूरज की किरणों को छूकर, सुमन स्वयं खिल जाते हैं ||२४||
भौतिक पारस मणि तो केवल, लोहे को स्वर्ण बनाती है |
हे पार्श्व प्रभो! तुमको छूकर, आत्मा कुंदन बन जाती है ||२५||
तुम सर्वशक्तिधारी हो प्रभु, ऐसा बल मैं भी पाऊँगा |
यदि यह बल मुझको भी दे दो, फिर कुछ न माँगने आऊँगा ||२६||
कह रहा भक्ति के वशीभूत, हे दयासिन्धु! स्वीकारो तुम |
जैसे तुम जग से पार हुये, मुझको भी पार उतारो तुम ||२७||
जिसने भी शरण तुम्हारी ली, वह खाली न रह पाया है |
अपनी अपनी आशाओं का, सबने वाँछित फल पाया है ||२८||
बहुमूल्य सम्पदायें सारी, ध्याने वालों ने पार्इ हैं |
पारस के भक्तों पर निधियाँ, स्वयमेव सिमटकर आर्इ हैं ||२९||
जो मन से पूजा करते हैं, पूजा उनको फल देती है
प्रभु पूजा भक्त पुजारी के, सारे संकट हर लेती है ||३०||
जो पथ तुमने अपनाया है, वह सीधा शिव को जाता है |
जो इस पथ का अनुयायी है,वह परम मोक्षपद पाता है |३१|
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्यंसी निर्वपामीति स्वाहा ।
(दोहा)
पार्श्वनाथ-भगवान् को, जो पूजे धर ध्यान |
उसे लोक-परलोक के, मिलें सकल वरदान ||
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
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