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Sunday, 24 January 2016

bhaktamar_hindi_padhyanuvadamritlal_chanchal

भक्तामर स्तोत्र : हिन्दी पद्यानुवाद
अमृतलाल जैन चंचल)
भक्त-देवों की नत मणि-मौलिकान्ति कारक जो करते हैं।
जगत के सकल पाप-तम-पुंजप्रभाकर से जो हरते हैं॥
अगम संसार-सिन्धु में जोडूबतों के हैं प्रभु आधार।
उन्हीं के युग पद-कमलों काप्रथम कर वन्दन बारम्बार॥ १॥

अमरपुर-पति से ज्ञानी नेस्तवन जिनका किया महान।
मनोहरत्रिभुवन-मनमोहनविशाल स्तोत्रों से कर गान॥
उन्हीं नाभीश्वर-नन्दन कीकहाते हैं जिनेश जो आद्य
आज मैं स्तुति करता हूँबनाकर अपना प्रिय आराध्य॥ २॥

देवताओं से पूजित देव! कहाँ प्रभु आपकहाँ मतिहीन!
किन्तुफिर भी होकर निर्लज्जहुआ वन्दन को प्रस्तुत दीन॥
बतायें तोबालक को छोड़दूसरा और कौन साईं।
नीर में दिखती निशिकर कीप्रभो! पकड़ेगा परछाईं॥ ३॥

गिने यदि सुरगुरु सा भी विज्ञआपकेगुण चन्द्र समान।
नहीं है यह सम्भव हे देव! कर सके वह पूरा गुणगान॥
मगर-मच्छों से परिपूरितप्रलय-सी जिसमें चलें हिलोर।
कौन तर सकता ऐसा सिन्धुभुजाओं से करुणे की कोर॥ ४॥

आपकी भक्ति मोहिनी मेंमुनीश्वर! है वह आकर्षण।
शक्ति से रहितकिन्तु तो भीस्तवन कर कहता है मन॥
जानती है मृगि यह सब भाँतिकहाँ मैंकहाँ सिंह बलवान।
किन्तु हो शिशु के मोह अधीनन वह क्या करती रण भगवान?॥ ५॥

जानता नहीं शास्त्र क्या वस्तुहँसेंगे देख मुझे विद्वान्।
बुलाती है मुझको हे नाथ! आपकीतो भी भक्ति महान॥
मधुर मधु ऋतु के आने परकूकतीं क्यों पिक-बालायें?
हेतु उसका केवल है एकआम्र की कोमल कलिकायें॥ ६॥

भ्रमर के तन समान कालालोक में फैला तम-आकाश।
सूर्य की प्रखर रश्मियों सेप्रभो! ज्यों हो जाता है नाश॥
आपकी स्तुति से त्यों ईश! जन्मों-जन्मों के संचित पाप।
बिखर कर हो जाते हैं भस्मएक क्षण भर में अपने आप॥ ७॥

स्तवन करता हूँ यह सोच नाथयद्यपि हूँ मैं मतिमन्द।
आपके शुचि प्रभाव से हीप्रफुल्लित होंगे सज्जन वृन्द॥
कमल-दल पर जल बूँदे हीदयामय! यदि पड़ जाती हैं।
वही मोती समान दिखकरजगत का चित्त लुभाती हैं॥ ८॥

आपकी निष्कलंक स्तुतिप्रभो! छोड़ेवह तो है दूर।
आपकी कथा मात्र की नाथ! विश्व के कर देती अघ चूर॥
सूर्य कहते हैं कोसों दूरन जगती तल पर आते हैं।
किन्तु उनकी किरणों से हीकमल सर में खिल जाते हैं॥ ९॥

आपके वन्दन से यदि नाथ! सभी हो जावें आप समान।
प्रभो! तो इसमें क्या वैचित्र्यनहीं कुछ भी आश्चर्य महान्॥
बतायें तो त्रिभुवन भूषण! जगत में है उनका क्या काम?
नौकरों को जो अपने तुल्यबना लें ना मालिक अभिराम॥ १०॥

आप जिसके नयनों में जासमा जाते हैं रूपागार।
उसे फिर फीका ही लगताविश्व सा यह विस्तृत संसार॥
भला जिसने पी रक्खा होक्षीर सागर का सुन्दर नीर।
विभो! वह क्यों कर जावेगाकहेंखारे सागर के तीर?॥ ११॥

आपका जिन रागादिक हीनरजों से हुआ प्रभो! निर्माण।
जगत में वे उतने ही थेन रज अब उनके और समान॥
अगर होते वैसे परमाणुजगत में हे जगदीश्वर! और।
आपके सम अवश्य होतेकहीं! दो-चार और चित चोर॥ १२॥

कहाँ वह वदन आपका रम्यसुर नरोरग का मनहारी।
सकल उपमान-विजय अनुपमत्रिजग-मनमोहन सुखकारी॥
कहाँ बतलायें! वह सकलंकबापुरारंक निशा का दीन।
दिवाकर के पद धरते हीप्रभो! जो हो जाता द्युति-हीन॥ १३॥

शशिकला से निर्मलरमणीकमनोहरता से पारावार।
आपके गुण निशि वासर नाथ! छानते हैं तीनों संसार॥
ठीक है नाथ! उसे क्या भयत्रिजगपति का है जिन पर हाथ।
खुशीवे चाहे जहाँ फिरेंकौन लड़ सकता उनके साथ?॥ १४॥

अमर बालाएँ यदि हे नाथ! आपको कर न सकीं वाचाल।
कौन तो प्रभु इसमें आश्चर्यबतायें हे त्रिभुवन भूपाल?
प्रलय-मारुत कर सकता हैपर्वतों का अवश्य कन्दन।
किन्तु क्या गिरि मन्दर में भीकभी ला सकता स्पन्दन?॥ १५॥

शिखा होवे जिसकी निर्धूमन जिसमें जलता होवे स्नेह।
पवन से बुझ न सके जो दीपन देखा ऐसा करुणा-गेह॥
किन्तु निर्धूमतेल से शून्यआप हैं वह दीपक आधार।
प्रकाशित होता जिससे विश्वपराजित होता झंझा वार॥ १६॥

आप होते न कभी प्रभु अस्तआपको ग्रसता कभी न राहु।
एक ही साथ आप से तीनप्रकाशित होते जग-जग बाहु॥
मेघ-मण्डल से भी जगदीश! आपकी रुके न ज्योति अपार।
सूर्य से भी बढक़र मुनिनाथ! आप हैं महिमा के आगार॥ १७॥

मोह रूपी तम को हरतेजगतपति! नित्य निरन्तर त्रास।
आपका मुख-सरसीरुहचन्द्रसतत करता है शुभ्र प्रकाश॥
राहु दे सकता उसे न त्रासछिपाता उसे न घन का पुञ्ज।
जगत-मनमोहन हे जगदीश!आपका मुख सौन्दर्य-निकुंज॥ १८॥

तिमिर का कर देता जब नाशआपका मुख-शशि ही अभिराम।
रात्रि में विधुदिन में रवि काबतायें प्रभु फिर है क्या काम?
हो गया हो यदि जग माँहिपूर्ण परिपक्क जिनेश्वर धान।
नीर से लदे बादलों काकाम फिर कहें कौन भगवान्?॥ १९॥

शुद्धतमनिर्मलज्ञान जिनेश! आप में जो छवि पाता है।
हरि-हरादिक देवों में वहनरोत्तम! रंच न भाता है॥
एक सुन्दरअनुपम मणि मेंनाथ जो होता उजियाला।
उसे क्या पा सकता हैरंककाँच झिलमिल करने वाला॥ २०॥

हरिहरादिक को देखे सेकिन्तु है एक लाभ भारी।
अरुचि उनसे होती हैऔरआप बन जाते मनहारी।
आपके दर्शन से पर देवकहेंमैं लाभ कौन पाऊँ?
आप ही आप मिलें सुंदरशतों भव चाहे फिर आऊँ॥ २१॥

जगत के बीच अनेकों मातप्रसव करती हैं पुत्र जिनेश।
किसी माँ ने न किया उत्पन्नआपके सम परसुत-राकेश॥
दिशायें सारी धरती हैंसितारों का प्रभु उजियाला।
किन्तु प्राची ही प्रकटातीदिवाकर सहस रश्मि वाला॥ २२॥

विमलपुरुषोत्तम रविवत् शुभ्रआदि ले लेकर सुन्दर नाम।
आपको योगीजन जगदीशपुकारें नित्य सुबह और शाम॥
आपको पाकर वे जिनराज! मृत्यु पर जय पा जाते हैं।
जगत में अन्य आपको छोड़मुक्ति का पन्थ न पाते हैं॥ २३॥

आपको कहता कोई आद्यकोई अव्यय अचिन्त्य योगेश।
कोई कहता है एक अनेककोई विभु हरि योगी परमेश॥
कोई कहता अनंगध्वज नाथ! कोई कहता प्रभु निर्मल संत।
कोई कहता है ज्ञान स्वरूपआपको कहता कोई अनंत॥ २४॥

आप ही बुद्ध विबुध पूजितकेवली शुद्ध बुद्धि धारी।
आप ही हैं सच्चे शंकरजगत्पति! जग मंगलकारी॥
आप ही विधिकारक ब्रह्मामोक्ष के पथ के प्रतिपादक।
आप ही प्रभु पुरुषोत्तम व्यक्तमदन मोहन वंशी वादक॥ २५॥

त्रिजग के दु:ख हरने वालेआपको मेरे लाख प्रणाम।
भूमि के हे निर्मल भूषणआपको मेरे लाख प्रणाम॥
भवोदधि के शोषण-कर्ताआपको मेरे लाख प्रणाम।
जगत के पति हे परमेश्वरआपको मेरे लाख प्रणाम॥ २६॥

निराश्रित गुण गण ने यदि देव! आपको बना लिया आगार।
कौन तो इसमें विभु! आश्चर्यबतायेंमुझको गुण आधार॥
स्वप्न तक में भी दोषों नेन देखा यदि प्रभु मुख-रजनीश।
कौन आश्चर्यमिल गया ठौरन आये प्रभु तक दुर्गुण ईश॥ २७॥

खड़ा है इक अशोक का वृक्षकिए उन्नत मस्तक स्वामी।
उसी के नीचे बैठे हैंआप ले शुचि तन अभिरामी॥
दृश्य ऐसा दिखता मानोंबादलों की माला के पास।
सुविस्तृत-करधारीदिनकरकर रहा होवे शुभ्र प्रकाश॥ २८॥

स्फटिक के सिंहासन परआपका कनक-वदन प्राणेश।
कल्पना पैदा करता एकहृदय में सुन्दरसौम्यजिनेश॥
रत्न से जटित उदयगिरि परमुझे दिखताजग के अवलंब॥
प्रकाशित होता हो मानोंदिवाकर का प्रचण्डतम बिम्ब॥ २९॥

आपके स्वर्ण-कलेवर परकुन्द से चमरों का ढुरना।
अहा! कितना आह्लादक दृश्यभक्ति-रस का बहता झरना॥
आप मानें या  मानेंमुझे ऐसा दिखता भगवान।
मेरु पर बहता हो मानोंनीर निर्झर का चन्द्र समान॥ ३०॥

आपके उन्नत मस्तक परसुहाते तीन-छत्र सुखधाम।
लगे जिनमें अगणित मुक्तारवि-प्रभा-हरशशि से अभिराम॥
तीन ही छत्र भला क्यों होंक्योंकि हे जिनवर! जग हैं तीन।
आप हैं तीन लोक के नाथ! बताते हैं यह छत्र प्रवीण॥ ३१॥

गगन में बजता नक्काराजगतपति! दशों दिशायें चीर।
आपके यश का निशिवासरभरा करता है स्वर गंभीर॥
त्रिजग को सत्संगति की नित्यबताते महिमा अपरम्पार।
परम भट्टारक जिनवर काप्रभो! वह करता जय जयकार॥ ३२॥

देवनन्दन-निकुंज से चुनमधुर मंदार आदि के फूल।
सुगन्धित जल-बूँदों के साथआप पर बरसाते सुख फूल॥
मन्द मारुत में आते हैंफूल जब करते उजियाला।
मुझे दिखतामानों आतींप्रभो के वचनों की माला॥ ३३॥

सहस्रों प्रखर सूर्य से भीविभो! हैं यद्यपि आप प्रचण्ड।
आपका भा-मण्डल जननाथ! विजेता त्रिभुवन ज्योति अखण्ड॥
किन्तु फिर भी प्रभु! शीतलताआप में वह दिखलाती है।
चन्द्र से फूली रजनी भीजिनेश्वर से शरमाती है॥ ३४॥

आपकी दिव्यध्वनि जिनराजस्वर्ग-शिव-पथ निर्देशक है।
त्रिलोकों के मंगलकारीधर्म की पटु उपदेशक है॥
एक ही भाषा में यद्यपिजिनेश्वर उसे खिराते हैं।
किन्तु सब अपनी बोली मेंअर्थ उसका पा जाते हैं॥ ३५॥

आपके नख में हे जिनराज! भरी है ऐसी सुन्दर कान्ति।
स्वर्ण के नव पंकज या नखहमें हो जाती प्रभु! यह भ्रान्ति॥
आप इन नाखूनों से युक्तजहाँ मनहर पद धरते हैं।
वहीं पर आकर कमलों कीदेवगण रचना करते हैं॥ ३६॥

आपकी जो विभूति जिनराजहुई धर्मोपदेश के काल।
हरिहरादिक देवों की वहकभी भी नहीं हुई जगपाल॥
प्रकाशित होती नाथ अवश्यगगन में यद्यपि ग्रह-माला।
तिमिर-भंजक रवि का क्या किन्तुकभी वह पाती उजियाला?॥ ३७॥

युगल गालों से जिसके नाथचू रही होवे मद की धार।
प्रतिक्षण करते हों जिस परसहस्रों भौंरे मिल गुंजार॥
इस तरह का यदि हाथी भीकुपित हो दौड़े बनकर काल।
आपके भक्तों का तो भीन कर सकता वह बाँका बाल॥ ३८॥

चीर कर जिसने हे जगबन्धुअनेकों गज के गण्डस्थल।
पाटकर बना दिया है रम्यमोतियों से वसुन्धरा तल॥
प्रभो! ऐसा पंचानन भीन कर सकता है उस पर वार।
आपके पद रूपी गिरि काजिसे है हे जिनेन्द्र! आधार॥ ३९॥

प्रलय कालीन अग्नि सम भीआग लग जाये अगर जिनेश।
फुलिंगे उड़ें योजनों सेविश्व दिखता हो होता शेष॥
आपका नाम सुमर कर हीछोड़ दें यदि प्रभु! उस पर नीर।
आप में है वह शक्ति अनूपउसी क्षण मिट जावेगी पीर॥ ४०॥

कोकिला कण्ठ तुल्य नीलाउगलते युग नैनों से रक्त।
उठा कर फन डँसने दौड़े नाग भी यदि प्रभु क्रोधासक्त॥
आपका नाम-नागदमनीदयामय! जिस नर के है पास।
अगर वह कुचल जाय तो भीन दे सकता अहि उसको त्रास॥ ४१॥

हिनहिनाते हों जहाँ तुरंगमत्त गज करते हों चिंघाड़।
भीम से भीम नृपतियों की प्रभोवर! ऐसी सैन्य प्रगाढ़॥
आपका नाम सुमनते हीक्षेत्र से हो जाती त्यों नाश।
देव! ज्यों अंधकार का पुञ्ज देखते ही रवि-रश्मि प्रकाश॥ ४२॥

युद्ध में छिदे हाथियों केरक्त से भरे सुविस्तृत ताल।
तैर लडऩे को आतुर हैंदयामय! जो मानव विकराल॥
सुभट से सुभट हराने में जिन्हें रखते हैं प्रभु शंका।
आपके चरण-कमल आश्रितबनाते उन पर जय-डंका॥ ४३॥

जहाँ फिरता हो मुँह बायेभयंकर मगर-मच्छ का दल।
उठ रहा हो तूफाँधू-धू जहाँ करता हो बडवानल॥
इस तरह के समुद्र में भीअगर पड़ जावे प्रभो! जहाज।
आपका नाम सुमरते हीपार हो जाता वह सरताज॥ ४४॥

जलोदर से जो पीडि़त हैंमहा दुर्गति है जिनकी नाथ!
जिन्दगी की आशा से जोधो चुके हैं बिल्कुल ही हाथ॥
आपको पद-रज अमृत कोलगा लें वे भी यदि भगवान्।
क्षणिक में ही कुरूपता छोड़ विभो! हो जावें मदन समान॥ ४५॥

लोह ही दृढ़ जंजीरों सेप्रभो! जकड़ी है जिसकी देह।
पड़ी है पाँवों में बेड़ीछिल गई हैं जाँघेंगुण गेह॥
करें यदि ऐसे बन्दी भीआपके नाम-मंत्र का जाप।
जाप करते ही करते नाथबन्ध कट जावें अपने आप॥ ४६॥

समरदावानलगजहरिरोगसिन्धुअहिबंध आदि का भय।
आपकी पुण्य-स्तुति से नाथएक क्षण में हो जाते क्षय॥
जगत में भक्तामर का जोपाठ करते हैं विज्ञ विनीत।
भाग जाते हैं कोसों दूरसकल भय हो उनसे भयभीत॥ ४७॥

आपके गुण-निकुंज से चुनअनेकों वर्णों के प्रभु फूल।
गुँथा है पुण्य-स्तवन काहार चंचल सभक्ति सुख कूल॥
मानतुंग जो भक्तामर कीहृदय धरते यह सुंदर माल।
उन्हें दोनों ही लोकों केप्राप्त होते ऐश्वर्य विशाल॥ ४८॥

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