Search This Blog

Sunday, 24 January 2016

bhaktamar_hindi

भक्तामर स्तोत्र भाषा
(कमलकुमार शास्त्री कुमुद)
भक्त अमर नत-मुकुट सुमणियोंकी सुप्रभा का जो भासक।
पापरूप अतिसघन-तिमिर काज्ञान-दिवाकर-सा नाशक॥
भव-जल पतित जनों को जिसनेदिया आदि में अवलम्बन।
उनके चरण-कमल को करतेसम्यक् बारम्बार नमन॥ १॥

सकल वाङ् मय तत्त्वबोध सेउद्भव पटुतर धी-धारी।
उसी इन्द्र की स्तुति से हैवन्दित जग-जन मनहारी॥
अति आश्चर्य की स्तुति करताउसी प्रथम जिन स्वामी की।
जगनामी-सुखधामी तद्भव-शिवगामी अभिरामी की॥ २॥

स्तुति को तैयार हुआ हूँमैं निर्बुद्धि छोड़ के लाज।
विज्ञजनों से अर्चित हैं प्रभुमंदबुद्धि की रखना लाज॥
जल में पड़े चन्द्र-मंडल कोबालक बिना कौन मतिमान ?
सहसा उसे पकडऩे वालीप्रबलेच्छा करता गतिमान॥ ३॥

हे जिन ! चन्द्रकान्त से बढक़रतव गुण विपुल अमल अतिश्वेत।
कह न सकें नर हे गुण-सागरसुर-गुरु के सम बुद्धिसमेत॥
मक्र-नक्र-चक्रादि जन्तु युतप्रलय पवन से बढ़ा अपार।
कौन भुजाओं से समुद्र केहो सकता है परले पार॥ ४॥

वह मैं हूँकुछ शक्ति न रखकरभक्ति प्रेरणा से लाचार।
करता हूँ स्तुति प्रभु तेरीजिसे न पौर्वा-पर्य विचार॥
निज शिशु की रक्षार्थ आत्म-बलबिना विचारे क्या न मृगी।
जाती है मृगपति के आगेशिशु-सनेह में हुई रंगी॥ ५॥

अल्पश्रुत हूँ श्रुतवानों सेहास्य कराने का ही धाम।
करती है वाचाल मुझे प्रभु! भक्ति आपकी आठों याम॥
करती मधुर गान पिक मधु मेंजग-जन मनहर अति अभिराम।
उसमें हेतु सरस फल-फूलोंसे युत हरे-भरे तरु -आम॥ ६॥

जिनवर की स्तुति करने सेचिर संचित भविजन के पाप।
पलभर में भग जाते निश्चितइधर-उधर अपने ही आप॥
सकल लोक में व्याप्त रात्रि काभ्रमर सरीखा काला ध्वान्त।
प्रात: रवि की उग्र किरण लखहो जाता क्षण में प्राणान्त॥ ७॥

मैं मतिहीन-दीन प्रभु तेरीशुरू करूँ स्तुति अघ-हान।
प्रभु-प्रभाव ही चित्त हरेगासन्तों का निश्चय से मान॥
जैसे कमल-पत्र पर जल-कणमोती जैसे आभावान।
दिपते हैं फिर छिपते हैं असली मोती में हे भगवान्॥ ८॥

दूर रहे स्तोत्र आपकाजो कि सर्वथा है निर्दोष।
पुण्य-कथा ही किन्तु आपकीहर लेती है कल्मष-कोष॥
प्रभा प्रफुल्लित करती रहतीसर के कमलों को भरपूर।
फेंका करता सूर्य-किरण कोआप रहा करता है दूर॥ ९॥

त्रिभुवन-तिलक जगत-पति हे प्रभु! सद्गुरुओं के हे गुरुवर्य।
सद्भक्तों को निज सम करतेइसमें नहीं अधिक आश्चर्य॥
स्वाश्रित जन को निजसम करतेधनी लोग धन धरनी से।
नहीं करें तो उन्हें लाभ क्या उन धनिकों की करनी से॥१0

हे अनिमेष विलोकनीय प्रभु! तुम्हें देखकर परम-पवित्र।
तोषित होते कभी नहीं हैंनयन मानवों के अन्यत्र॥
चन्द्रकिरण सम उज्ज्वल निर्मलक्षीरोदधि का कर जल पान।
कालोदधि का खारा पानीपीना चाहे कौन पुमान॥११॥

जिन जितने जैसे अणुओं सेनिर्मापित प्रभु तेरी देह।
थे उतने वैसे अणु जग मेंशान्ति-राग-मय नि:सन्देह॥
हे त्रिभुवन के शिरोभाग केअद्वितीय आभूषण-रूप।
इसीलिये तो आप सरीखानहीं दूसरों का है रूप॥१२॥

कहाँ आपका मुख अतिसुंदरसुर-नर उरग नेत्रहारी।
जिसने जीत लिये सब जग केजितने थे उपमाधारी॥
कहाँ कलंकी बंक चन्द्रमारंक-समान कीट-सा दीन।
जो पलाश-सा फीका पड़ता,दिन में हो करके छबि-छीन॥१३॥

तव गुण पूर्ण-शशांक कान्तिमयकला-कलापों से बढक़े।
तीन लोक में व्याप रहे हैंजो कि स्वच्छता में चढक़े॥
विचरें चाहे जहाँ कि जिनकोजगन्नाथ का एकाधार।
कौन माई का जाया रखताउन्हें रोकने का अधिकार॥ १४॥

मद की छकी अमर ललनाएँप्रभु के मन में तनिक विकार।
कर न सकी आश्चर्य कौन-सारह जाती हैं मन को मार।
गिर गिर जाते प्रलय पवन सेतो फिर क्या वह मेरु -शिखर।
हिल सकता है रंच-मात्र भीपाकर झंझावात प्रखर॥ १५॥

धूम न बत्ती तैल बिना हीप्रकट दिखाते तीनों लोक।
गिरि के शिखर उड़ाने वालीबुझा न सकती मारुत झोक॥
तिस पर सदा प्रकाशित रहतेगिनते नहीं कभी दिन-रात।
ऐसे अनुपम आप दीप हैंस्वपर प्रकाशक जग विख्यात॥१६॥

अस्त न होता कभी न जिसकोग्रस पाता है राहु प्रबल।
एक साथ बतलाने वालातीन लोक का ज्ञान विमल॥
रुकता कभी प्रभाव न जिसकाबादल की आकर के ओट।
ऐसी गौरव-गरिमा वालेआप अपूर्व दिवाकर कोट॥१७॥

मोह महातम दलने वालासदा उदित रहने वाला।
राहु न बादल से दबता परसदा स्वच्छ रहने वाला॥
विश्व प्रकाशकमुख-सरोज तबअधिक कांतिमय शांतिस्वरूप।
है अपूर्व जग का शशिमंडलजगत शिरोमणि शिव का भूप॥१८॥

नाथ! आपका मुख जब करताअन्धकार का सत्यानाश।
तब दिन में रवि और रात्रि मेंचन्द्रबिम्ब का विफल प्रयास॥
धान्य खेत जब धरती तल केपके हुए हों अति अभिराम।
शोर मचाते जल को लादेहुए घनों से तब क्या काम ?॥१९॥

जैसा शोभित होता प्रभु कास्वपर प्रकाशक उत्तम ज्ञान।
हरि-हरादि देवों में वैसाकभी नहीं हो सकता भान॥
अति ज्योर्तिमय महारतन काजो महत्त्व देखा जाता।
क्या वह किरणा-कुलित काँच मेंअरे कभी लेखा जाता॥२0

हरिहरादि देवों का ही मैंमानूँ उत्तम अवलोकन।
क्योंकि उन्हें देखने भर सेतुझसे तोषित होता मन॥
है परन्तु क्या तुम्हें देखनेसे हे स्वामिन्! मुझको लाभ।
जन्म-जन्म में लुभा न पातेकोई यह मेरा अमिताभ॥२१॥

सौ-सौ नारीसौ-सौ सुत कोजनती रहती सौ-सौ ठौर।
तुम से सुत को जनने वालीजननी महती क्या है और॥
तारागण को सर्व दिशाएँ धरें नहीं कोई खाली।
पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापीदिनपति को जनने वाली॥२२॥

तुम को परम पुरुष मुनि मानेंविमल वर्ण रवि तमहारी।
तुम्हें प्राप्त कर मृत्युञ्जय केबन जाते जन अधिकारी।
तुम्हें छोडक़र अन्य न कोईशिवपुर-पथ बतलाता है।
किन्तु विपर्यय मार्ग बताकरभव-भव में भटकाता है॥ २३॥

तुम्हें आद्य अक्षय अनन्त प्रभुएकानेक तथा योगीश।
ब्रह्मा ईश्वर या जगदीश्वरविदितयोग मुनिनाथ मुनीश॥
विमल ज्ञानमय या मकरध्वजजगन्नाथ जगपति जगदीश।
इत्यादिक नामों कर मानेसन्त निरन्तर विभो निधीश॥ २४॥

ज्ञान पूज्य हैअमर आपकाइसीलिये कहलाते बुद्ध।
भुवनत्रय के सुख संवद्र्धकअत: तुम्हीं शंकर हो शुद्ध॥
मोक्ष-मार्ग के आद्य प्रवर्तकअत: विधाता कहे गणेश।
तुम सम अवनी पर पुरुषोत्तमऔर कौन होगा अखिलेश॥२५॥

तीन लोक के दु:ख हरण करने वाले हे तुम्हें नमन।
भूमण्डल के निर्मल-भूषण आदि जिनेश्वर तुम्हें नमन॥
हे त्रिभुवन के अखिलेश्वर होतुमको बारम्बार नमन।
भवसागर के शोषक पोषकभव्यजनों के तुम्हें नमन॥२६॥

गुणसमूह एकत्रित होकरतुझमें यदि पा चुके प्रवेश।
क्या आश्चर्य न मिल पाये होंअन्य आश्रय उन्हें जिनेश।
देव कहे जाने वालों सेआश्रित होकर गर्वित दोष।
तेरी ओर न झाँक सकें वेस्वप्नमात्र में हे गुण-कोष॥ २७॥

उन्नत तरु अशोक के आश्रितनिर्मल किरणोन्नत वाला।
रूप आपका दिपता सुन्दरतमहर मनहर-छवि-वाला॥
वितरण-किरण निकर तमहारकदिनकर घनके अधिक समीप।
नीलाचल पर्वत पर होकरनीरांजन करता ले दीप॥ २८॥

मणि-मुक्ता-किरणों से चित्रितअद्भुत शोभित सिंहासन।
कान्तिमान कंचनसा दिखताजिस पर तव कमनीय वदन॥
उदयाचल के तुंग शिखर सेमानो सहस्र रश्मि वाला।
किरण-जाल फैलाकर निकलाहो करने को उजियाला॥ २९॥

ढुरते सुन्दर चँवर विमल अतिनवल कुन्द के पुष्प-समान।
शोभा पाती देह आपकीरौप्य धवल-सी आभावान॥
कनकाचल के तुंग शृंग सेझर-झर झरता है निर्झर।
चन्द्रप्रभा सम उछल रही होमानो उसके ही तट पर॥ ३0

चन्द्रप्रभा सम झल्लरियों सेमणि-मुक्तामय अति कमनीय।
दीप्तिमान शोभित होते हैंसिर पर छत्र-त्रय भवदीय॥
ऊपर रहकर सूर्य-रश्मि कारोक रहे हैं प्रखर प्रताप।
मानों वे घोषित करते हैंत्रिभुवन के परमेश्वर आप॥ ३१॥

ऊँचे स्वर से करने वालीसर्व दिशाओं में गुञ्जन।
करने वाली तीन लोक केजन-जन का शुभ-सम्मेलन॥
पीट रही है डंकाहो सत् धर्म-राज की जय-जय-जय।
इस प्रकार बज रही गगन मेंभेरी तव यश की अक्षय॥ ३२॥

कल्पवृक्ष के कुसुम मनोहरपारिजात एवं मंदार।
गंधोदक की मंदवृष्टि करते हैं प्रमुदित देव उदार॥
तथा साथ ही नभ से बहतीधीमी-धीमी मंद पवन।
पंक्ति बाँधकर बिखर रहे होंमानों तेरे दिव्य वचन॥ ३३॥

तीन लोक की सुन्दरता यदिमूर्तिमान बनकर आये।
तन-भा-मंडल की छवि लखकरतव सन्मुख शरमा जावे॥
कोटि सूर्य के ही प्रताप समकिन्तु नहीं कुछ भी आताप।
जिसके द्वारा चन्द्र सु-शीतलहोता निष्प्रभ अपने आप॥ ३४॥

मोक्ष-स्वर्ग के मार्ग प्रदर्शकप्रभुवर तेरे दिव्य-वचन।
करा रहे है सत्य-धर्म केअमर-तत्त्व का दिग्दर्शन॥
सुनकर जग के जीव वस्तुत:कर लेते अपना उद्धार।
इस प्रकार परिवर्तित होतेनिज-निज भाषा के अनुसार॥३५॥

जगमगात नख जिसमें शोभेंजैसे नभ में चन्द्रकिरण।
विकसित नूतन सरसीरुह समहे प्रभु तेरे विमल चरण॥
रखते जहाँ वहीं रचते हैंस्वर्ण-कमलसुर दिव्य ललाम।
अभिनन्दन के योग्य चरण तव,भक्ति रहे उनमें अभिराम॥ ३६॥

धर्म-देशना के विधान मेंथा जिनवर का जो ऐश्वर्य।
वैसा क्या कुछ अन्य कुदेवोंमें भी दिखता है सौन्दर्य॥
जो छवि घोर-तिमिर के नाशकरवि में है देखी जाती।
वैसी ही क्या अतुल कान्तिनक्षत्रों में लेखी जाती॥ ३७॥

लोल कपोलों से झरती हैंजहाँ निरन्तर मद की धार।
होकर अति मदमत्त कि जिस परकरते हैं भौंरे गुँजार॥
क्रोधासक्त हुआ यों हाथीउद्धत ऐरावत-सा काल।
देख भक्त छुटकारा पातेपाकर तव आश्रय तत्काल॥ ३८॥

क्षत-विक्षत कर दिये गजों केजिसने उन्नत गण्डस्थल।
कान्तिमान गज-मुक्ताओं सेपाट दिया हो अवनी-तल॥
जिन भक्तों को तेरे चरणों केगिरि की हो उन्नत ओट।
ऐसा सिंह छलांगे भरकरक्या उस पर कर सकता चोट?॥३९॥

प्रलयकाल की पवन उड़ाकरजिसे बढ़ा देती सब ओर।
फिकें फुलिंगे ऊपर तिरछेअंगारों का भी होवे जोर॥
भुवनत्रय को निगला चाहेआती हुई अग्नि भभकार।
प्रभु के नाम-मंत्र-जल से वहबुझ जाती है उसही बार॥ ४0

कंठ-कोकिला सा अति कालाक्रोधित हो फण किया विशाल।
लाल-लाल लोचन करके यदिझपटै नाग महा विकराल॥
नाम-रूप तब अहि-दमनी कालिया जिन्होंने हो आश्रय।
पग रख कर निश्शंक नाग परगमन करें वे नर निर्भय॥ ४१॥

जहाँ अश्व की और गजों कीचीत्कार सुन पड़ती घोर।
शूरवीर नृप की सेनायेंरव करती हों चारों ओर॥
वहाँ अकेला शक्तिहीन नरजप कर सुन्दर तेरा नाम।
सूर्य तिमिर सम शूर-सैन्य काकर देता है काम तमाम॥ ४२॥

रण में भालों से वेधित गजतन से बहता रक्त अपार।
वीर लड़ाकू जहँ आतुर हैंरुधिर-नदी करने को पार॥
भक्त तुम्हारा हो निराश तहँलख अरिसेना दुर्जयरूप।
तव पादारविन्द पा आश्रयजय पाता उपहार-स्वरूप॥ ४३॥

वह समुद्र कि जिसमें होवेंमच्छ मगर एवं घडिय़ाल।
तूफां लेकर उठती होवेंभयकारी लहरें उत्ताल॥
भ्रमर-चक्र में फँसे हुये होंबीचोंबीच अगर जलयान।
छुटकारा पा जाते दु:ख सेकरने वाले तेरा ध्यान॥ ४४॥

असहनीय उत्पन्न हुआ होविकट जलोदर पीड़ा भार।
जीने की आशा छोड़ी होदेख दशा दयनीय अपार॥
ऐसे व्याकुल मानव पाकरतेरी पद-रज संजीवन।
स्वास्थ्य लाभ कर बनता उसकाकामदेव सा सुंदर तन॥ ४५॥

लोह-शृंखला से जकड़ी हैनख से शिख तक देह समस्त।
घुटने-जंघे छिले बेडिय़ों सेजो अधीर जो है अतित्रस्त॥
भगवन ऐसे बंदीजन भीतेरे नाम - मंत्र की जाप।
जप कर गत-बंधन हो जातेक्षणभर में अपने ही आप॥ ४६॥

वृषभेश्वर के गुण स्तवन काकरते निश-दिन जो चिंतन।
भय भी भयाकुलित हो उनसेभग जाता है हे स्वामिन्॥
कुंजर-समर-सिंह-शोक - रुजअहि दावानल कारागार।
इनके अति भीषण दु:खों काहो जाता क्षण में संहार॥ ४७॥

हे प्रभु ! तेरे गुणोद्यान कीक्यारी से चुन दिव्य ललाम।
गूँथी विविध वर्ण सुमनों कीगुणमाला सुन्दर अभिराम॥
श्रद्धासहित भविकजन जो भी कण्ठाभरण बनाते हैं।
मानतुंग-सम निश्चित सुन्दरमोक्ष-लक्ष्मी पाते हैं॥ ४८॥

No comments:

Post a Comment