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Thursday, 21 January 2016

namokar_chalisa

सब सिंहो को नमन कर, सरस्वती को ध्याय |
चालीसा नवकार का, लिखूं त्रियोग लगाय ||

महामंत्र नवकार हमारा, जन जन को प्राणों से प्यारा ||१||
मंगलमय यह प्रथम कहा हैं, मंत्र अनधि निधन महा हैं ||२||
षटखंडागम में गुरुवर ने, मंगलाचरण लिखा प्राकृत में ||३||
यही से ही लिपिबद्ध हुआ हैं, भविजन ने डर धार लिया हैं ||४||
पांचो पद के पैतीस अक्षर, अट्ठावन मात्राए हैं सुखकर ||५||
मंत्र चौरासी लाख कहाए, इससे ही निर्मित बतलाए ||६||
अरिहंतो को नमन किया हैं, मिथ्यातम का वमन किया हैं ||७||
सब सिद्धो को वन्दन करके, झुक जाते भावों में भरकर ||८||
आचार्यों की पद भक्ति से, जीव उबरते नीज शक्ति से ||९||
उपाध्याय गुरुओं का वन्दन, मोह तिमिर का करता खंडन ||१०||
सर्व साधुओ को मन में लाना, अतिशयकारी पुन्य बढ़ाना ||११||
मोक्षमहल की नीव बनाता, अतः मूल मंत्र कहलाता ||१२||
स्वर्णाक्षर में जो लिखवाता, सम्पति से टूटे नहीं नाता ||१३||
णमोकार की अद्भुत महिमा, भक्त बने भगवन ये गरिमा ||१४||
जिसने इसको मन से ध्याया, मनचाहा फल उसने पाया ||१५||
अहंकार जब मन का मिटता, भव्य जीव तब इसको जपता ||१६||
मन से राग द्वेष मिट जाता, समता बाव ह्रदय में आता ||१७||
अंजन चोर ने इसको ध्याया, बने निरंजन निज पद पाया ||१८||
पार्श्वनाथ ने इसको सुनाया, नाग-नागिनी सुर पद पाया ||१९|| \A0
चाकदत्त ने अज की दीना, बकरा भी सुर बना नवीना ||२०||
सूली पर लटके कैदी को, दिया सेठ ने आत्मशुद्धि को ||२१||
हुई शांति पीड़ा हरने से, देव बना इसको पढ़ने से ||२२||
पदमरुची के बैल को दीना, उसने भी उत्तम पद लीना ||२३||
श्वान ने जीवन्धर से पाया, मरकर वह भी देव कहाया ||२४||
प्रातः प्रतिदिन जो पढ़ते हैं, अपने दुःख संकट हराते हैं ||२५||
जोन वकार की भक्ति करते, देव भी उनकी सेवा करते ||२६||
जिस जिसने इसे जपा हैं, वही स्वर्ण सैम खूब तप हैं||२७||
तप-तप कर कुंदन बन जाता, अंत में मोक्ष परम पद पाटा ||२८||
जो भी कंठहार कर लेता, उसको भव-भव में सुख देता ||२९||
जिसने इसको शीश पर धारा, उसने ही रिपु कर्म निवारा ||३०||
विश्वशान्ति का मूल मंत्र हैं, भेदज्ञान का महामंत्र हैं ||३१||
जिसने इसका पाठ कराया, वचन सिद्धि को उसने पाया ||३२||
खाते-पीते-सूते जपना, चलते-फिरते संकट हराना ||३३||
क्रोध अग्नि का बल घट जावे, मंत्र नीर शीतलता लावे ||३४||
चालीसा जो पढ़े पढावे, उसका बेडा पार हो जावे ||३५||
क्षुल्लकमणि शीतलसागर ने, प्रेरित किया लिखा 'अरुण' ने ||३६||
तीन योग से शीश नवाऊ, तीन रतन उत्तम पा जाऊं ||३७||
पर पदार्थ से प्रीत हटाऊं, शुद्धतम के ही गुण गाऊ ||३८||
हे प्रभु! बस यही वर चाहूँ, अंत समय नवकार ही ध्याऊ ||३९||
एक-एक सीधी चढ़ जाऊं, अनुक्रम से निजपद पा जाऊं ||४०||

पंच परम परमेष्ठी हैं, जग में विख्यात |
नमन करे जो भाव से, शिव सुख पा हर्षात || \A0

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