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Sunday, 24 January 2016

bhaktamar_strotra_phulchand

(पं. फूलचन्दजी पुष्पेन्दुखुरई)
(१) मंगल-चरण-प्रभा
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
नत-मस्तक सुर भक्तों केजिनवर-पद अनुरक्तों के।
मुकुटों की झिलमिल मणियाँमणियों की हीरक लडिय़ाँ॥
जगमग-जगमग दमक उठींप्रतिबिम्बित हो चमक उठीं।
जिनके पावन चरणों सेचरण युगल की किरणों से॥
युग-युग शरण प्रदाता होंपतितों के भव त्राता हों।
जो समुद्र में डूबे हैंजन्म मरण से ऊबे हैं॥
उनके सारे कष्ट हरेंपाप तिमिर को नष्ट करें।
उनको सम्यक् नमन करूँभक्तामर आभरण करूँ॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(२) तत्वज्ञों द्वारा स्तुत्य
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
जिनकी मंगल-गीता कोद्वादशांग नवनीता को।
इन्द्रों ने गा पाया हैतीनों लोक रिझाया है॥
तत्त्व बोध प्रतिभा द्वाराबहा काव्य-रस की धारा।
ललितमनोहर छन्दों मेंबड़े-बड़े अनुबंधों में॥
भाव भरी स्तुतियों मेंभक्ति भरी अँजुलियों में।
उन्हीं प्रथम परमेश्वर कातीर्थंकर वृषभेश्वर का॥
अभिनन्दन मैं करता हूँपद वन्दन मैं करता हूँ।
यही अचंभा भारी हैसचमुच विस्मयकारी है॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(३) मेरा साहस पूर्ण कदम
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
नाथ! आपका सिंहासनसिंहासन के युगल-चरण।
अर्चित हैं देवों द्वाराचर्चित हैं इन्द्रों द्वारा॥
मेरा काव्य असम्मत हैफिर भी मेरी हिम्मत है।
निर्मल-जल के अन्दर जोचंदा दिखता सुन्दर जो॥
वह उसकी परछैया हैअथवा भूल-भुलैयाँ है।
मु_ी मध्य जकडऩे कीहिम्मत उसे पकडऩे की॥
बालक ही कर सकता हैअँजुल में भर सकता है।
बुद्धिहीन कहलाऊँगालाज छोडक़र गाऊँगा॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(४) अन्तरात्मा की आवाज
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
जिनवर के गुण कैसे हैंधुली चाँदनी जैसे हैं।
उन्हें न कोई गा सकतापार न कोई पा सकता॥
चाहे स्वयं वृहस्पति होंप्रत्युत्पन्न महामति हों।
वे भी आखिर हारे हैंफिर तो हम बेचारे हैं॥
प्रलयंकर तूफानी होगहरा-गहरा पानी हो।
मगरमच्छ भी उछल-उछलमचा रहे हों उथल-पुथल॥
ऐसा सिन्धु भुजाओं सेहाथों की नौकाओं से।
कौन भला तिर सकता हैदरिया में गिर सकता है?
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(५) गुणों का कीर्तन
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
शक्तिहीन होने पर भीचतुराई खोने पर भी।
भगवत् भक्ति उमड़ती हैस्तुति करनी पड़ती है॥
जैसे कोई हिरनिया होछौना चुन-चुन मुनिया हो।
उस पर शेर झपटता होनहीं हटाये हटता हो॥
तो क्या हिरणी माँ मोरीदिखलायेगी कमजोरी?
नहीं सामना करती क्याभला शेर से डरती क्या?
अपना वत्स बचाती हैतनिक नहीं सकुचाती है।
बछड़ा उसको प्यारा हैजिसने उसे दुलारा है॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥ 5

(६) उमड़ती हुई भक्ति प्रेरणा
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
हँसी उड़ाया जाऊँगामूर्ख बनाया जाऊँगा।
यद्यपि मैं विद्वानों सेगानों की तुकतानों से॥
तो भी भक्ति ढकेल रहीनाकों डाल नकेल रही।
वही प्रेरणा करती हैबोल कंठ में भरती है॥
ज्यों बसंत के आने परमादकता छा जाने पर।
महक उठी है बगिया क्योंचहक उठी कोयलिया क्यों?
क्योंकि कैरियाँ महक उठींअत: कोयलें चहक उठीं।
गुण से आप महकते हैंइससे भक्त बहकते हैं॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(७) पाप-संतति का समापन
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
जन्म-जन्म से जोड़ रखेअपने सिर पर ओढ़ रखे।
जीवों ने जो पाप यहाँदु:ख और सन्ताप यहाँ॥
वे प्रभु के गुण गाने सेमंगल-गीत सुनाने से।
छिन भर में उड़ जाते हैंनहीं फटकने पाते हैं॥
भौंरे सा जो काला हैजगत ढाँकने वाला है।
ऐसा घोर अँधेरा होमिथ्यातम का डेरा हो॥
सूरज-किरन निकलते हीज्ञान-दीप के जलते ही।
सचमुच वह खो जाता हैछू मंतर हो जाता है॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(८) स्तवन का मूल कारण
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
पानी की भी बूँद अगरगिरे कमल के पत्तों पर।
मोती तुल्य दमकती हैचमचम चारु चमकती है॥
यही सोच प्रारंभ कियामंगल गीतारंभ किया।
सज्जन खुश हो जायेंगेफूले नहीं समायेंगे॥
वे तो इस पर रीझेंगेश्रेय आपको ही देंगे।
भले रहूँ अज्ञानी मैंभोला-भाला प्राणी मैं॥
भाव-प्रभाव तुम्हारा हैकेवल चाव हमारा है।
तुमने उसे संवारा हैसत्पुरुषों को प्यारा है॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(९) गुण-गाथा का पुण्य प्रभाव
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
चूर-चूर हो जाते हैंदोष दूर हो जाते हैं।
जिनकी मंगल गीता सेपावन परम पुनीता से॥
उसकी चर्चा नहीं यहाँउसकी अर्चा नहीं यहाँ।
लेकिन पुण्य कथाएँ हीधरती जगत व्यथाएँ ही॥
पाप सभी धुल जाते हैंओलों से घुल जाते हैं।
कोसों दूर दिवाकर हैफिर भी वे कमलाकर हैं॥
जल में कमल खिलाते हैंकिरणों को पहुँचाते हैं।
अर्चायें तो दूर रहेंचर्चायें भरपूर रहें॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(१०) भक्तियोग से साम्ययोग
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
भूतनाथ जिन भगवन हे! त्रिभुवन के आभूषण हे!
गुणगाथा-गाथा गाने वालेस्तुति अपनाने वाले॥
तुम जैसे बन जाते हैंसब विभूतियाँ पाते हैं।
भौतिक और प्रभौतिक भी लौकिक और अलौकिक भी॥
इसमें कुछ आश्चर्य नहींपा जाते ऐश्वर्य यहीं।
जो अपने आधीनों कोदास दरिद्री दीनों को॥
करे नहीं अपने जैसावह स्वामी स्वामी कैसा?
कैसा उसका धन पैसाअगर गरीब निराश्रयसा॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(११) हृदय की आँखों से
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
इकटक तुम्हें निहार रहींतुम पर सब कुछ वार रहीं।
ये अँखियाँ अब जाएँ कहाँतुम जैसा अब पाएँ कहाँ?
दर्शनीय हो नाथ! तुम्हींवर्णनीय हो नाथ! तुम्हीं।
जिसने निर्मल-नीर पियाक्षीर सिन्धु का क्षीर पिया॥
छिटकी धवल जुन्हैंया सामीठा मधुर मिठइया सा।
वह क्या लवण समुद्रों काखारा पानी क्षुद्रों का?
पीकर प्यास बुझायेगासागर तट पर जायेगा?
कभी नहीं पी सकता हैप्यासा ही जी सकता है॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(१२) परमौदारिक दिव्य देह
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
वीतराग हर कण-कण हैचुम्बकीय आकर्षण है।
कण-कण में सुन्दरता हैकण-कण मोहित करता है॥
जिसने तुम्हें बनाया हैसुन्दर रूप सजाया है।
वे सारे कण पृथ्वी परउतने ही थे धरती पर॥
सो सब तुम में व्याप्त हुएपरमाणु समाप्त हुए।
इसीलिए तो कोई नहींतुम सा सुन्दर दिखे कहीं॥
तुम ही शान्त मनोहर होतीन लोक में सुन्दर हो।
हे प्रशांत मुद्रा धारी! सुन्दरता की बलिहारी॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(१३) वीतराग मुख मुद्रा
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
तीन लोक की उपमाएँजिसे देखकर शरमाएँ।
देवों और नरेन्द्रों केविद्याधर धरणेन्द्रों के॥
नयनों को हरने वालामन मोहित करने वाला।
कहाँ आपका मुखड़ा हैकहाँ चाँद का टुकड़ा है?
कहाँ मलीन मयंक अरेजिसको लगा कलंक अरे?
दिन में फीका पड़ जातालज्जा से गड़-गड़ जाता॥
कुम्हलाता अलवत्ता हैज्यों पलाश का पत्ता है।
उपमा नहीं चन्द्रमा कीआनन से दी जा सकती॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(१४) आत्मीक गुणों की स्वच्छंदता
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
सकल कलाओं वाले हैंचंदा से उजयाले हैं।
गुण अनंत परमेश्वर केउज्ज्वल ज्ञान कलाधर के॥
भरते खूब छलाँगे हैंतीनों लोक उलाँगे हैं।
फैल रहे मनमाने हैंकोई नहीं ठिकाने हैं॥
जिसने पल्ला पकड़ लियादामन कसके जकड़ लिया।
केवल एक जिनेश्वर कातीन लोक ज्ञानेश्वर का॥
जिन पर छत्रछाया हैवीतराग की माया है।
रोक-टोक कुछ उन्हें नहींघूमें वे तो जहाँ कहीं॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(१५) निर्विकार निष्कंप प्रभो
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
देवलोक की परियाँ भीसुन्दरियाँ किन्नरियाँ भी।
कामुक हाव-भाव लाईरंचक नहीं डिगा पाईं॥
इसमें अरे अचम्भा क्यातिलोत्तमा या रंगा क्या?
आँधी उठे कयामत कीशामत हो हर पर्वत की॥
उड़ते और उखड़ते होंबनते और बिगड़ते हों।
पर सुमेरु की चोटी क्याछोटी से भी छोटी क्या?
डाँवाडोल हुआ करतीआँधी उसे छुआ करती।
मेरू नहीं टस से मस होंजिनवर नहीं काम वश हों॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(१६) चिन्मय रत्न-दीप
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
बिना धुआँ बत्ती वालातेल नहीं जिसमें डाला।
फिर भी जो आलोक भरेजग-मग तीनों लोक करे॥
ऐसे स्व-पर प्रकाशक होपाप-तिमिर के नाशक हो।
ज्योतिर्मय हो जीवक होआप निराले दीपक हो॥
तेज आँधियाँ चले भलेपर्वत-पर्वत हिलें भले।
फिर भी बुझा नहीं पायाअमरदीप हमने पाया॥
जिसमें काम-कलंक नहींदेह नेह का पंक नहीं।
चिदानंद चिन्मयता हैनिज में ही तन्मयता है॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(१७) कैवल्य ज्ञान मार्तण्ड
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
होते हैं जो अस्त नहींकभी राहु से ग्रस्त नहीं।
एक साथ झलकाते हैंतीनों लोक दिखाते हैं॥
सूरज से भी बढक़र हैंमहिमाएँ बढ़-चढ़ कर हैं।
नहीं बादलों में गहराछिपा रहे अपना चेहरा॥
परम प्रतापी तेजस्वीमहा मनस्वी ओजस्वी।
सचमुच आप मुनीश्वर हैंसूरज से भी बढक़र हैं॥
एक साथ झलकाते हैंजग प्रत्यक्ष दिखाते हैं।
मोह-राहु का ग्रहण नहींकर्मों का आवरण नहीं॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(१८) सम्यक् ज्ञान कलाधर
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
ज्ञानोदय सर्वोदय हैनित्य सत्य अरुणोदय है।
मोह तिमिर हट जाता हैमिथ्या-तम फट जाता है॥
बादल नहीं छला करतेराहु नहीं निगला करते।
ऐसा चाँद निराला हैमुखड़ा कमलों वाला है॥
नव प्रकाश भर देता हैजग ज्योतित कर देता है।
घटती उसकी कान्ति नहींहटती समरस शान्ति नहीं॥
ऐसा चाँद निराला हैज्ञान कलाओं वाला है।
कमल स्वरूपी मुख मंडलदीप्तिमान अत्यंत विमल॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(१९) निष्प्रयोज्य रवि-शशि-मंडल
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
दिन के लिए दिवाकर हैंनिशि के लिए निशाकर हैं।
दोनों चमका करते हैंअन्धकार भी हरते हैं॥
पर मुख चन्द्र तुम्हारा जोजीवों को है प्यारा जो।
वह अज्ञान अँधेरे कोमिथ्यातम के घेरे को॥
एक अकेला भगा रहासारा जग जगमगा रहा।
सूर्य चन्द्र से मतलब क्यारही जरूरत भी अब क्या॥
जगत प्रकाशित करने कीव्यर्थ रोशनी भरने की।
ज्यों फसलों के पकने परव्यर्थ बरसते हैं जलधर॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(२०) त्रिमूर्ति और रत्नत्रय मूर्ति
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
जैसी केवल ज्योति-प्रभासम्यक् ज्ञान कला प्रतिभा।
शोभा पाती प्रभुवर मेंवैसी ब्रह्म हरिहर में॥
स्वपर प्रकाशित दीप्ति नहींशुचि अखण्ड प्रज्ञप्ति नहीं।
जगमग मणि मुक्ताओं मेंहीरों की कणिकाओं में॥
जैसा तेजो पुँज भराचकाचौंध मय सहज खरा।
वैसा तेज न काँचों मेंकिरणा कुलित किराचों में॥
कभी प्राप्त हो सकता हैनहीं व्याप्त हो सकता है।
सूरज से किरणों भरतेपरावत्र्त उनको करते॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(२१) वीतरागता और सरागता
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
मानूँ अपना बहुत भलाजो मैं इनको देख चला।
ये कैसे हैंरागी हैंमहादेव बड़भागी है॥
क्योंकि इन्हें निरखने सेअच्छी तरह परखने से।
बड़ा लाभ तो यही हुआमन संतोषित नहीं हुआ॥
किन्तु आपके दर्शन सेऔर सूक्ष्म अवलोकन से।
मुझ को यह नुकसान हुआस्थिर मेरा ध्यान हुआ॥
तुम पर ऐसा टिका अरे! जन्म-जन्म को बिका अरे!
यह चंचल मन अटक रहातव पद में सर पटक रहा॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(२२) चन्द्रतम को नष्ट करता है
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
यहाँ सैकड़ों महिलाएँबनती रहती माताएँ।
सौ-सौ बालक जनती हैंपुन: प्रसूता बनती हैं॥
किन्तु आपकी माता सीभगवन् जन्म प्रदाता सी।
नहीं दूसरी होती हैमंगल प्रसव संजोती है॥
सभी दिशाएँ-विदिशाएँनभ का आँगन चमकाएँ।
टिम-टिम नभ के तारों सेगोदी भरी हजारों से॥
किन्तु एक तेजस्वी कोसूरज से ओजस्वी को।
पूर्व दिशा ही जनती हैसच्ची माता बनती है॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(२३) सार्थक नाम समुच्चय
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
हे मुनियों के नाथ मुनीतुम हो भजते परम गुनी।
सूर्यकान्त तुम को कहतेतेजवन्त रवि से रहते॥
अमल तुम्हीं कहलाते होतामस दूर भगाते हो।
तुम्हीं परम पुरुषोत्तम होतुम्हीं मोक्ष के संगम हो॥
तुमको जिसने पाया हैभलीभाँति अपनाया है।
वही मौत को जीत चुकाभव-भय उसका बीत चुका॥
वह मृत्युञ्जय कहलाताजो तुमको सचमुच ध्याता।
क्योंकि छोडक़र तुम्हें कहींमोक्ष-पंथ है और नहीं॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(२४) निर्नाम नाम प्रसिद्धि
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
संतों ने इन नामों सेभजा विविध सिरनामों से।
नाथ! आप ही अव्यय होशाश्वत् निर्मल अक्षय हो॥
परे विकल्पों से रहतेसंख्यातीत तुम्हें कहते।
तुम्हीं प्रथम तीर्थंकर होआदि ब्रह्मशिवशंकर हो॥
ईश्वर तुम को संत कहेंनहीं तुम्हारा अंत कहे।
कामदेव का नाश कियासम्यक् ज्ञान प्रकाश किया॥
योगीश्वर कहलाते होयोग मार्ग बतलाते हो।
तुम्हीं अनेक स्वरूपी होएकमेव चिद्रूपी हो॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(२५) वास्तविक आप्तपना
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
बोधि लाभ के पाने सेकेवलज्ञान जगाने से।
बुद्ध आप ही सिद्ध हुएशंकर परम प्रसिद्ध हुए॥
क्योंकि तीन ही लोकों केहरने वाले शोकों के।
मंगल कत्र्ता शंकर हे! ऋषभदेव तीर्थंकर हे!
देवों द्वारा अर्चित होधीर नाम से चर्चित हो।
मुक्ति-मार्ग बतलातेे होविधि-विधान जतलाते हो॥
इससे तुम्हीं विधाता होसृष्टि नियम निर्माता हो।
पुरुषोत्तम प्रत्यक्ष तुम्हींसमवसरण अध्यक्ष तुम्हीं॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(२६) द्रव्य-नमन और भाव-नमन
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
हे तीनों ही लोकों केदु:खों-कष्टों-शोकों के।
दूर करैया नमन-नमनचूर करैया नमन-नमन॥
अलंकार भू-मंडल केआभूषण अवनी-तल के।
शिरोमणी हे नमन-नमनअग्रगणी हे नमन-नमन।
तीन लोक के स्वामी हेपरमेश्वर अभिरामी हे।
मन-वच-तन से नमन-नमननिज चेतन से नमन-नमन॥
सिन्धु सोखने वाले हेभ्रमण रोकने वाले हे।
भवदधि शोषक नमन-नमनयुग उद्घोषक नमन-नमन॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(२७) दोषों की अभिव्यंजना
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
गुण सारे के सारे हीआये शरण तुम्हारे ही।
वहीं ठसाठस पिल बैठेआप सहारे मिल बैठे॥
दोष गर्व से इतरायेइधर-उधर सब छितराये।
फूले नहीं समाते थेविविध ठिकाने पाते थे॥
खोटे - खोटे देवों केछोटे-छोटे देवों के।
इसीलिए मदहोशों नेसपने में भी दोषों ने॥
नहीं आपको झाँका भीमूल्य आपका आँका भी।
इसमें अचरज कौन अरेगुण ही गुण से आप भरे॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(२८) अशोक-प्रातिहार्य-रूप
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
तरु अशोक की छाँव तलेलगते हो प्रभु बहुत भले।
रूप रश्मियाँ निखर रहींऊपर-ऊपर बिखर रहीं॥
परमौदारिक काया सेउच्च वृक्ष की छाया से।
सूर्य बिम्ब हो निकल रहाअँधियारे को निगल रहा॥
फूट रहीं हैं उसमें सेछूट रहीं हैं उसमें से।
किरणें ऊपर-ऊपर कोभेद रहीं है अम्बर को॥
कजरारे बादल दल सेमानो गिरि नीलांचल से।
सूर्य आरती करता हैभक्ति-भारती भरता है॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(२९) सिंहासन-प्रातिहार्य-रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
सिंहासन के मणियों कीरत्नजटिल किंकणियों की।
रंग-बिरंगी किरणों सेकिरणों की भी नोकों से॥
चित्रित जो सिंहासन हैमणि-मंडित पीठासन है।
उस पर कंचन काया हैमहा पुण्य की माया है॥
उदयाचल का उच्च शिखरउसी शिखर की चोटी पर।
मानो सूरज उदित हुआअवनी अंबर मुदित हुआ॥
रवि की किरण लताओं काकोटि-कोटि समुदायों का।
मानो तना चँदोवा हैक्या ही बढिय़ा शोभा है?
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(३०) चल चाँवर प्रातिहार्य रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
कुंद-कुंद मचकुंद धवलसुरभित सुमनस वृन्द नवल।
शुभ्र चँवर के ढुरने सेनीचे ऊपर फिरने से॥
स्वर्ण कान्त आभा वालीदिव्य-देह शोभा शाली।
इतनी मन भावन लगतीरम्य परम पावन लगती॥
मानो झरना झरता होजल प्रपात सा गिरता हो।
स्वर्णाचल के आँगन परधवल धार से छल-छल कर॥
उगते हुए कलाधर कीशुभ्र ज्योत्स्ना शशिधर की।
लगती जितनी निर्मल हैधारा उतनी उज्ज्वल है॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(३१) छत्रत्रय-रत्नत्रय-प्रातिहार्य रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
तीन छत्र अति सुन्दर हैंविशद शीर्ष के ऊपर हैं।
चन्द्रकान्त से उज्ज्वल हैंसौम्यअचंचलशीतल हैं॥
झिलमिल मयि झल्लरियों नेमणियों की वल्लरियों ने।
शोभा अधिक बढ़ाई हैप्रभुता ही प्रकटाई है॥
मार्तण्ड का तेज प्रखररोक रहे अपने ऊपर।
मानो वे दरशाते हैंछत्रत्रय बतलाते हैं॥
तीन लोक के स्वामी होभक्त नयन पथगामी हो।
प्रातिहार्य छत्रत्रय काचमत्कार रत्नत्रय का॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(३२) देव-दुन्दुभि प्रातिहार्य रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
बजा गगन में नक्कारादिग् दिगन्त गूँजा सारा।
मधुर-मधुर ऊँचे स्वर सेहुई घोषणा अम्बर से॥
सत्य-धर्म की जय जय जयआत्म-धर्म की जय जय जय।
जय बोलो तीर्थंकर कीजय बोलो अभयंकर की॥
जन-जन का यह मेला हैतीन लोक तक फैला है।
हुए इके जीव सभीहर्षोत्फुल्ल अतीव सभी॥
बजा जीत का डंका हैइसमें भी क्या शंका है।
जय के नारे लगा रहीविजय दुन्दुभि जगा रही॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(३३) पुष्प-वृष्टि-प्रातिहार्य-रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
रिमझिम अमृत-वर्षण केशीतल सुखद समीरण के।
मंद-मंद झोंके बहतेसुरभित गन्ध युक्त रहते॥
उन झोकों से गिरे हुएडंठल नीचे किए हुए।
फूलों की लग रही झड़ीउपमा ऐसी जान पड़ी॥
कल्पवृक्ष नन्दन वन केअम्बर के चन्दन वन के।
पारिजात मन्दार सुमनसन्तानक सुन्दर कुसुमन॥
ऊध्र्वमुखी होकर गिरतेमानो दिव्य-वचन खिरते।
पंक्तिबद्ध वृषभेश्वर केतत्त्व निबद्ध जिनेश्वर के॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(३४) आभा-मंडल प्रातिहार्य-रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
तेजो राशि महा-मंगलचमक रहा आभा-मंडल।
रश्मि पुँज बिखराता हैऐसी कान्ति दिखाता है॥
जैसे अनगिनती सूरजएक साथ ले तेज-ध्वज।
पृष्ठ भूमि में उदय हुएतमस्तोम सब विलय हुए॥
विद्यमान तीनों जग कादीप्तिमान तीनों जग का।
वस्तु समूह लजाया हैप्रभा देख शरमाया है॥
फिर भी सौम्य चाँदनी साभा-मंडल हत रजनी सा।
शोभनीय हैशीतल हैआदर्शी दर्पण-तल है॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(३५) दिव्य-ध्वनि प्रातिहार्य-रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
दिव्य-ध्वनि ओंकार मयीघन-गर्जन झंकार मयी।
स्वर्ग-मोक्ष मग दर्शातीपथ प्रशस्त करती जाती॥
सम्यक् धर्म सुनाती हुईत्रिभुवन पार लगाती हुई।
द्रव्य-गुणों-पर्यायों काविशद वस्तु समुदायों का॥
भाव-अर्थ प्रकटाती हैपरिवर्तित हो जाती है।
श्रोताओं की भाषा मेंभावों भरी पिपासा में॥
सहज रूप परणित होतीदिव्यध्वनि नि:सृत होती।
यही विलक्षण अतिशय हैअनेकान्त नि:संशय है॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(३६) चरण-कमल तल स्वर्ण-कमल
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
प्रभु के चरण युगल कैसेनूतन स्वर्ण-कमल जैसे।
प्रभा पुँज बिखराते हैंरश्मि जाल फैलाते हैं॥
नख-शिख प्रसरित उजयालाचतुर्मुखी आभा वाला।
निकल रहा है चरणों सेदीप्ति नखों की किरणों से॥
के चरणाम्बुज जहाँ-जहाँपड़ते प्रभु के वहाँ-वहाँ।
कदम-कदम पर बिछते हैंसुरगण जिनको रचते हैं॥
कमल पाँवड़े सोने केसुन्दर और सलोने के।
कमल चरणों की चेरी हैविभूति प्रभुवर तेरी है॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(३७) समवशरण का वैभव
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
जितना जैसा जो ऐश्वर्यपाया जाता हे जिनवय्र्य।
वैभव धर्म सभाओं कासर्वोदयी विधाओं का॥
धर्म-देशना वेला मेंसमवसरण के मेला में।
नहीं दूसरों का वैसापाया जाता तुम जैसा॥
जैसी दीप्ति दिवाकर मेंदिपती घोर तिमिर-हर में।
वैसा कहाँ सितारों मेंटिम-टिम ज्योति हजारों में॥
परम ज्योति परमेश्वर हे! केवलज्ञान दिवाकर हे!
समवसरण अधिनायक हे! आत्म तत्त्व के ज्ञायक हे!
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(३८) क्रोध रूपी पशुता पर विजय
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
भीम-काय ऐरावत सामहा भयंकर पर्वत सा।
कोई गज उच्छृंखल होमतवाला होचंचल हो॥
गालों से मद झरने सेकलुषित उनके करने से।
भौंरे भी मँडराते होंक्रोध अधिक भडक़ाते हों॥
ऐसा हाथी सन्मुख होबेवशबेरसबेेरुख हो।
किन्तु आपके शरणागतयाकि आपके कीत्र्तन रत॥
तनिक न उससे डरते हैंवश में उसको करते हैं।
क्योंकि आप अभयंकर हैंवीतराग तीर्थंकर हैं॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(३९) हिंसक बर्बरता पर विजय
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
बर्बर सिंह हाथियों परझपटे अगर छलाँगें भर।
खूनी पंजे गाड़े होंगज गल मस्तक फाड़े हों॥
टपक रहे हों गज-मुक्ताउज्ज्वल और रुधिर सिक्ता।
वसुधा का शृंगार करेमानो मुक्ता हार धरे॥
ऐसे सिंह के पंजों मेंफँस कर क्रूर शिकंजों में।
कभी शिकार न हो सकताउस पर वार न हो सकता॥
यदि वह भक्त तुम्हारा हैयुग पद-शैल सहारा है।
चरणों की हो ओट जहाँउस पर कोई चोट कहाँ?
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(४०) अशान्ति की ज्वाला का शमन
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
आँधी प्रलयंकारी होदावानल यदि भारी हो।
धधका हो ज्वालाओं सेभभका तेज हवाओं से॥
चिनगारी चिनगारी होअँगारे भी जारी हों।
चारों ओर मचे हा! हा! मानो विश्व हुआ स्वाहा॥
लपटें ऐसी निकल रहींमानों जग को निगल रहीं।
किन्तु आपका जप-बल हीनामों का मंत्रित जल ही॥
अग्नि प्रचण्ड बुझाता हैशान्ति-सुधा बरसाता है।
वीतराग में राग कहाँअरे राग की आग कहाँ?
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(४१) विषय भुजंगों के विष का उपचार
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
ऊपर को फण किए हुएलाल-लाल दग लिए हुए।
क्रोध भरा मतवाला होकोयल जैसा काला हो॥
सर्प भुजंग निराला होबढक़र डसने वाला हो।
मगर आपके नामों कीस्तुति के आयामों की॥
नाग दमनियाँ जो रखतामन ही मन अमृत चखता।
ऐसा भक्त उलाँघेगापाँव नाग पर रख देगा॥
सर्प पटक फण रह जायेभक्त मगर बढ़ता जाये।
पथ उसका नि:शंक रहेनहि अहि का आतंक रहे॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(४२) कर्म शत्रुओं पर विजय
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
घोड़े हिन-हिन करते होंगज चिंघाड़े भरते हों।
रण का दृश्य भयंकर होशत्रु फौज बलवत्तर हो॥
वह भी पीठ दिखायेगीअपने मुँह की खायेगी।
उदित सूर्य की किरणों सेउनकी पैनी नोकों से॥
अन्धकार भिद जाता हैअंग-अंग छिद जाता है।
त्यों ही तुमको भजने सेस्तुति विनय सिरजने से॥
भक्त विजय पा जाता हैदुश्मन घबरा जाता है।
सेना छिन्न-भिन्न होतीडर से खेद खिन्न होती॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(४३) चेतन-कर्म युद्ध में आत्म-विजय
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
पैने बरछीभालों सेतलवारोंकरवालों से।
कट-कट हस्ती मरते होंनदी खून की भरते हों॥
शूर वीर अतराते हों! आतुरता दिखलाते हों!!
शीघ्र पार हो जाने कीदुश्मन पर जय पाने की॥
दुश्मन महा भयंकर होजिसे जीतना दुष्कर हो।
सो भी जय पा जाता हैरण में नाम कमाता है॥
जिसके चरण सरोजों कीमुंजल पद अंभोजों की।
शीतल छत्रच्छाया होजिसने तुमको ध्याया हो॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(४४) भव-समुद्र की भक्ति नौका
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
मगर मच्छ घडिय़ाल जहाँजीव-जन्तु विकराल जहाँ।
लहरें अति उत्ताल जहाँबडवानल की ज्वाल जहाँ॥
सुलगी महा समुन्दर मेंजल के क्षुब्ध बवंडर में।
डावाँडोल जहाज हुएप्राणों के मुँहताज हुए॥
जल-यात्रा करने वालेमहा मृत्यु वरने वाले।
किन्तु आपको रटने सेभक्ति मार्ग पर डटने से॥
सुखासीन बहते जातेभय-विहीन बढ़ते जाते।
अपने इष्ट ठिकानों परबैठ कुशल जल यानों पर॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(४५) जन्म-जरा-मृत्यु रोग विनाशक
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
भीषण रोग जलोदर होबदसूरत लम्बोदर हो।
टेढ़े मेढ़े अंग हुएअवयव सारे भंग हुए॥
चिन्ता जनक अवस्था होहालत बिल्कुल खस्ता हो।
चारों ओर निराशा होगिनती की ही श्वासा हो॥
अगर आपको वह भज लेअमृतमयी चरण-रज ले।
अपने अंग रमायेगातो सब रोग भगायेगा॥
नव-जीवन पा जायेगासुन्दर तन पा जायेगा।
मनहरमंजु मनोजों सासुन्दरनेघड़ सरोजों सा॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(४६) कर्म बन्धन से मुक्ति
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
बड़ी-बड़ी जंजीरों कोलेकर कसा शरीरों को।
जकड़ दिया है जोरों सेनख-शिख चारों ओरों से॥
मोटी लौह शृंखलाएँछील रहीं हो जंघाएँ।
इतनादृढ़तम बंधन होपराधीन बंदीजन हो॥
महामन्त्र यदि जपता हैतो स्वतन्त्र हो सकता है।
लगातार यदि जाप करेमुक्ति स्वयं ही आप वरे॥
हो जाता स्वच्छंद अहोतत्क्षण ही निर्बन्ध अहो।
टूटे बन्धन कर्मों केप्रकटे वैभव धर्मों के॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(४७) सप्त भयों से मुक्ति
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
जो इस मंगल-गीता कोपावन-परम पुनीता को।
भक्ति भाव से पढ़ते हैंहृदय फ्रेम में जड़ते हैं॥
वही विवेकी कहलातेउनके ये भय भग जाते।
मद उन्मत्त गजेन्द्रों काबर्बर सिंह मृगेन्द्रों का॥
धू धू करते ग्रामों कासर्पों कासंग्रामों का।
क्षोभित हुए समुद्रों कारोग जलोदर रुद्रों का॥
बन्धन का भी भय भगताभक्त मोक्ष मग में लगता।
दैहिकदैविक विपदाएँक्षण में सभी पला जाएँ॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

(४८) शुभाशीष एवं वरदान प्राप्ति
आदिनाथ के श्री चरणों मेंसादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन कीमंगल-गीता गाता हूँ॥
रंग-बिरंगे फूलों कीवर्ण वर्ण अनुकूलों की।
यह भक्तामर माला हैगुण का धागा डाला है॥
जो भी इसको पहिनेंगेआत्म कंठ गत कर लेंगे।
झमी हुई भक्तियों सेश्रद्धा भरी शक्तियों से॥
वह लक्ष्मी को पायेंगेनिज सम्मान बढ़ायेंगे।
मानतुङ्ग श्रीमान रहेंमुनिवर भक्त प्रधान रहें॥
उनके ही आशीषों कामंगलमयी मुनीशों का।
भाव चुरा अनुवाद कियामधुर-मधुर आस्वाद लिया॥
मानतुङ्ग मुनिवर की कृति कोभक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह मालाभक्तों को पहनाता हूँ॥

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