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Sunday, 24 January 2016

bhaktamar_strotra_hemchand

भक्तामर स्तोत्र भाषा
(हेमचन्द)
आदिपुरुष आदीश जिनआदि सुविधि करतार।
धरम-धुरंधर परमगुरुनमों आदि अवतार॥

सुरनतमुकुट रतन छवि करैंअंतर पापतिमिर सब हरैं।
जिनपद वंदों मन वच काय,भवजलपतित उरधरनसहाय॥ 1

श्रुत पारग इंद्रादिक देवजाकी थुति कीनी कर सेव।
शब्द मनोहर अरथ विशालतिस प्रभु की वरनों गुनमाल॥ 2

विबुध वंद्य पद मैं मति हीनहो निलज्ज थुति मनसा कीन।
जलप्रतिबिंब बुद्ध को गहैशशि मंडल बालक ही चहै॥ 3

गुन समुद्र तुम गुन अविकारकहत न सुर गुरु पावै पार।
प्रलयपवनउद्धतजल जन्तुजलधितिरै को भुज बलवन्तु॥ 4

सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँभक्ति भाववश कुछ नहिं डरूँ।
ज्योंमृगि निजसुत पालनहेतुमृगपतिसन्मुखजाय अचेत॥ 5

मैं शठ सुधी हँसन को धाममुझ तव भक्ति बुलावै राम।
ज्यों पिक अंब कली परभावमधुऋतु मधुर करै आराव॥ 6

तुम जस जंपत जन छिनमाँहिजनम जनम के पाप नशाहिं।
ज्यों रवि उगै फटै तत्कालअलिवत नील निशातमजाल॥ 7

तब प्रभावतैं कहूँ विचारहोसी यह थुतिजन-मन-हार।
ज्यों जल-कमल पत्रपै परैमुक्ताफल की द्युति विस्तरै॥ 8

तुम गुन-महिमा हत-दुख-दोषसो तो दूर रहो सुख-पोष।
पापविनाशक है तुमनामकमलविकासी ज्यों रविधाम॥ 9

नहिं अचंभ जो होहिं तुरन्ततुमसे तुम गुण वरणत सन्त।
जो अधीन को आप समानकरैं न सो निंदित धनवान॥ 10

इक टक जन तुमको अविलोयअवरविषैं रति करैं न सोय।
को करि क्षीरजलधि जल पानक्षार नीर पीवैं मतिमान॥ 11

प्रभु तुम वीतराग गुण-लीनजिन परमाणु देह तुम कीन।
हैं तितने ही ते परमाणुयातैं तुम सम रूप न आनु॥ 12

कहँ तुम मुख अनुपम अविकारसुरनरनाग-नयन-मनहार।
कहाँ चन्द्रमंडलसकलंकदिन में ढाक-पत्र सम रंक॥ 13

पूरन चन्द्र-ज्योति छविवंततुम गुन तीन जगत लंघंत।
एकनाथ त्रिभुवन आधारतिन विचरत को करै निवार॥ 14

जो सुरतिय विभ्रम आरम्भमन न डिग्यो तुम तौ न अचंभ।
अचलचलावै प्रलय समीरमेरुशिखर डगमगै न धीर॥ 15

धूमरहित बाती गत नेहपरकाशै त्रिभुवन-घर एह।
बात-गम्य नाहीं परचण्डअपर दीप तुम बलो अखंड॥ 16

छिपहु न लुपहु राहुही छाँहिजग परकाशक हो छिनमाँहि।
घन अनवर्त दाह विनिवाररवितैं अधिक धरों गुणसार॥ 17

सदा उदित विदलित मनमोहविघटित मेघ राहु अविरोह।
तुममुखकमलअपूरवचन्दजगतविकाशीजोतिअमंद॥ 18

निशदिनशशिरविको नहिंकामतुम मुखचन्द हरै तमधाम।
जो स्वभावतैं उपजै नाजसजल मेघ तैं कौनहु काज॥ 19

जो सुबोध सोहै तुम माहिंहरि हर आदिक में सो नाहिं।
जो द्युति महा-रतन में होयकाँच-खंड पावे नहिं सोय॥ 20

सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया,
स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया।
कछू न तोहि देख के जहाँ तु ही विशेखिया,
मनोग चित्त-चोर और भूल हूँ न पेखिया॥ 21

अनेक पुत्र वंतिनी नितंबिनी सपूत हैं,
न तो समान पुत्र और माततैं प्रसूत हैं।
दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिनै।
दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै॥ 22

पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो,
कहें मुनीश अंधकार-नाश को सुभान हो।
महंत तोहि जानके न होय वश काल के,
न और मोहि मोखपंथ देय तोहि टालके॥ 23

अनन्त नित्य चित्त की अगम्य रम्य आदि हो,
असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो।
महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो,
अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो॥ 24

तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमानतैं,
तु ही जिनेश शंकरो जगत्-त्रये विधानतैं।
तुही विधात है सही सुमोखपंथ धारतैं,
नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचारतैं॥ 25

नमो करूँ जिनेश तोहि आपदा निवार हो,
नमो करूँ सुभूरि-भूमि-लोक के सिंगार हो।
नमो करूँ भवाब्धि-नीर-राशि-शोष-हेतु हो,
नमो करूँ महेश तोहि मोखपंथ देतु हो॥ 26

तुम जिन पूरन गुन-गन भरेदोष गर्वकरि तुम परिहरे।
और देवगण आश्रय पायस्वप्न न देखें तुम फिर आय॥ 27

तरु अशोक-तर किरन उदारतुम तन शोभित है अविकार।
मेघ निकट ज्यों तेज फुरंतदिनकर दिपै तिमिर निहनंत॥ 28

सिंहासनमणि-किरण-विचित्रतापर कंचन-वरन पवित्र।
तुमतनशोभितकिरनविथारज्योंउदयाचलरवि तमहार॥ 29

कुंद-पुहुप-सित-चमर ढुरंतकनक-वरन तुम तन शोभंत।
ज्यों सुमेरु-तट निर्मल कांतिझरना झरै नीर उमगांति॥ 30

ऊँचे रहौ सूर दुति लोपतीन छत्र तुम दिपै अगोप।
तीन लोक की प्रभुता कहैंमोती-झालरसों छवि लहैं॥ 31

दुंदुभि-शब्द गहर गंभीरचहुँ दिशि होय तुम्हारे धीर।
त्रिभुवनजन शिव-संगम करैमानूँ जय-जय रव उच्चरै॥ 32

मंद पवन गंधोदक इष्टविविध कल्पतरु पुहुप-सुवृष्ट।
देव करैं विकसित दल सारमानों द्विजपंकति अवतार॥ 33

तुम तन भामंडल जिनचन्दसब दुतिवंत करत है मन्द।
कोटिशंखरवितेजछिपायशशिनिर्मलनिशिकरेअछाय॥ 34

स्वर्ग मोख मारग संकेतपरम धरम उपदेशन हेत।
दिव्यवचनतुमखिरेंअगाधसबभाषा गर्भित हित साध॥ 35

विकसित सुवरन कमल दुतिनख दुति मिलि चमकाहिं।
तुम पद पदवी जहँ धरोतहँ सुर कमल रचाहिं॥ 36

ऐसी महिमा तुम विषैऔर धरै नहिं कोय।
सूरज में जो जोत हैनहिं तारा-गण होय॥ 37

मद-अवलिप्त-कपोलमूल अलिकुल झंकारे।
तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धत अति धारैं॥

काल-वरन विकरालकालवत सनमुख आवै।
ऐरावत सो प्रबल सकल जन भय उपजावै॥
देखि गयंद न भय करै तुम पद-महिमा लीन।
विपति रहित संपतिसहित वरतैं भक्त अदीन॥ 38

अति मद-मत्त-गयंद कुंभ-थल नखन विदारै।
मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारै॥
बांकी दाढ़ विशाल वदन में रसना लोलै।
भीम भयानक रूप देख जन थरहर डोलै॥
ऐसे मृग-पति पग-तलैं जो नर आयो होय।
शरण गए तुम चरण की वाधा करै न सोय॥ 39

प्रलय-पवनकर उठी आग जो तास पटंतर।
वमै फुलिंग शिखा उतंग पर जलैं निरंतर॥
जगत समस्त निगल्ल भस्म कर हैगी मानों।
तडतडाट दव-अनल जोर चहूँ-दिशा उठानों॥
सो इक छिन में उपशमैं नाम-नीर तुम लेत।
होयसरोवरपरिनमैं विकसितकमल समेत॥ 40

कोकिल-कंठ-समान श्यामतन क्रोध जलन्ता।
रक्त-नयन फुंकार मार विष-कण उगलंता॥
फण को ऊँचा करे बेग ही सम्मुख धाया।
तब जन होय नि:शंक देख फणपति को आया॥
जो चापै निज पगतलैं व्यापै विष न लगार।
नाग-दमनि तुम नाम की है जिनके आधार॥ 41

जिस रन-माहिं भयानक रव कर रहे तुरंगम।
घनसे गज गरजाहिं मत्त मानों गिरि जंगम॥
अति कोलाहल माहिं बात जहँ नाहिं सुनीजै।
राजन को परचंडदेख बल धीरज छीजै॥
नाथ तिहारे नामतैं सो छिनमाँहि पलाय।
ज्योंदिनकरपरकाशतैं अन्धकार विनशाय॥ 42

मारै जहाँ गयंद कुंभ हथियार विदारै।
उमगै रुधिर प्रवाह वेग जल सम विस्तारै॥
होय तिरन असमर्थ महाजोधा बलपूरे।
तिस रन में जिन तोर भक्त जे हैं नर सूरे॥
दुर्जय अरिकुल जीतके जय पावौ निकलंक।
तुम पद पंकज मन वसैं ते नर सदा निशंक॥ 43

नक्र चक्र मगरादि मच्छकरि भय उपजावै।
जामैं बड़वा अग्नि दाहते नीर जलावै॥
पार  पावैं जास थाह नहिं लहिये जाकी।
गरजै अतिगंभीरलहरकी गिनति न ताकी॥
सुखसों तिरैं समुद्रकोजे तुम गुन सुमराहिं।
लोल कलोलन के शिखरपारयानले जाहिं॥ 44

महा जलोदर रोगभार पीडि़त नर जे हैं।
बात पित्त कफ कुष्टआदि जो रोग गहै हैं॥
सोचत रहें उदासनाहिं जीवन की आशा।
अति घिनावनी देहधरैं दुर्गन्ध निवासा॥
तुम पद-पंकज-धूल कोजो लावैं निज अंग।
ते नीरोग शरीर लहिछिनमें होय अनंग॥ 45

पाँव कंठते जकर बांधसांकल अति भारी।
गाढ़ी बेड़ी पैर माँहिजिन जाँघ बिदारी॥
भूख प्यास चिंता शरीर दुख जे विललाने।
सरन नाहिं जिन कोय भूपके बंदीखाने॥
तुम सुमरत स्वयमेव ही बंधन सब खुल जाहिं।
छिनमें ते संपति लहैंचिंता भय विनसाहिं॥ 46

महामत्त गजराज और मृगराज दवानल।
फणपति रण परचंड नीरनिधि रोग महाबल॥
बंधन ये भय आठ डरपकर मानों नाशै।
तुम सुमरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशै॥
इस अपार संसार में शरन नाहिं प्रभु कोय।
यातै तुम पदभक्त को भक्ति सहाई होय॥ 47

यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुनन सँवारी।
विविधवर्णमय पुहुप गूँथ मैं भक्ति विथारी॥
जे नर पहिरें कंठ भावना मन में भावें।
मानतुंग ते निजाधीन शिवलक्ष्मी पावैं॥
भाषा भक्तामर कियोहेमराज हित हेत।
जे नर पढ़ै सुभावसोते पावैं शिवखेत॥ 48

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