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Sunday, 24 January 2016

bahubaliji_pooja

(कवि श्री जिनेश्वरदासजी)
(दोहा)
कर्म-अरिगण जीत के, दरशायो शिव-पंथ |
सिद्ध-पद श्रीजिन लह्यो, भोगभूमि के अंत ||
समर-दृष्टि-जल जीत लहि, मल्लयुद्ध जय पाय |
वीर-अग्रणी बाहुबली, वंदौं मन-वच-काय ||
ओं ह्रीं श्रीबाहुबलीजिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननं)
ओं ह्रीं श्रीबाहुबलीजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)।
ओं ह्रीं श्रीबाहुबलीजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)।
अष्टक
जन्म-जरा-मरणादि तृषा कर, जगत-जीव दु:ख पावें |
तिहि दु:ख दूर-करन जिनपद को, पूजन-जल ले आवें ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||
ओं ह्रीं वर्तमानावसर्पिणीसमये प्रथम कामदेव कर्मारिविजयी वीराधिवीर-वीराग्रणी श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय
जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१।
यह संसार मरुस्थल-अटवी, तृष्णा-दाह भरी है |
तिहि दु:खवारन चंदन लेके, जिन-पद पूज करी है ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||
ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय भवताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२।
स्वच्छ शालि शुचि नीरज रज-सम, गंध-अखंड प्रचारी |
अक्षय-पद के पावन-कारन, पूजें भवि जगतारी ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||
ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३।
हरि हर चक्रपति सुर दानव, मानव पशु बस जा के |
तिहि मकरध्वज-नाशक जिन को, पूजें पुष्प चढ़ा के ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||
ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४।
दु:खद त्रिजग-जीवन को अति ही, दोष-क्षुधा अनिवारी |
तिहि दु:ख दूर-करन को, चरुवर ले जिन-पूज प्रचारी ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||
ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।
मोह-महातम में जग जीवन, शिव-मग नाहिं लखावें |
तिहि निरवारन दीपक कर ले, जिनपद-पूजन आवें ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||
ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६।
उत्तम धूप सुगंध बनाकर, दश-दिश में महकावें |
दशविध-बंध निवारन-कारण, जिनवर पूज रचावें ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||
ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७।
सरस सुवर्ण सुगंध अनूपम, स्वच्छ महाशुचि लावें |
शिवफल कारण जिनवर-पद की, फलसों पूज रचावें ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||
ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८।
वसु-विधि के वश वसुधा सब ही, परवश अतिदु:ख पावें |
तिहि दु:ख दूरकरन को भविजन, अर्घ्य जिनाग्र चढ़ावें ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||
ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९।
जयमाला
(दोहा)
आठ-कर्म हनि आठ-गुण, प्रगट करे जिनरूप |
सो जयवंतो बाहुबली, परम भये शिवभूप ||
(कुसुमलता छन्द)
जय! जय! जय! जगतार-शिरोमणि क्षत्रिय-वंश अशंस महान |
जय! जय! जय! जगजन-हितकारी दीनो जिन उपदेश प्रमाण ||
जय! जय! चक्रपति सुत जिनके, शत-सुत जेष्ठ-भरत पहिचान |
जय! जय! जय! श्री ऋषभदेव जिन सो जयवंत सदा जग-जान ||१||
जिनके द्वितीय महादेवी शुचि नाम सुनंदा गुण की खान |
रूप-शील-सम्पन्न मनोहर तिनके सुत बाहुबली महान ||
सवा पंच-शत धनु उन्नत तन हरित-वरण शोभा असमान |
वैडूर्यमणि-पर्वत मानों नील-कुलाचल-सम थिर जान ||२||
तेजवंत परमाणु जगत में तिन करि रच्यो शरीर प्रमाण |
सत वीरत्व गुणाकर जाको निरखत हरि हरषो उर आन ||
धीरज अतुल वज्र-सम नीरज वीराग्रणी सम अति-बलवान |
जिन छवि लखि मनु शशि-रवि लाजे कुसुमायुध लीनों सुपुमान ||३||
बालसमय जिन बाल-चन्द्रमा शशि से अधिक धरे दुतिसार |
जो गुरुदेव पढ़ार्इ विद्या शस्त्र-शास्त्र सब पढ़ी अपार ||
ऋषभदेव ने पोदनपुर के नृप कीने बाहुबली कुमार |
दर्इ अयोध्या भरतेश्वर को आप बने प्रभुजी अनगार ||४||
राज-काज षट्खंड-महीपति सब दल लै चढ़ि आये आप |
बाहुबली भी सन्मुख आये मंत्रिन तीन युद्ध दिय थाप ||
दृष्टि नीर अरु मल्ल-युद्ध में दोनों नृप कीजो बलधाप |
वृथा हानि रुक जाय सैन्य की यातैं लड़िये आपों आप ||५||
भरत बाहुबली भूपति भार्इ उतरे समर-भूमि में जाय |
दृष्टि-नीर-रण थके चक्रपति मल्लयुद्ध तब करो अघाय ||
पगतल चलत चलत अचला तब कंपत अचल-शिखर ठहराय |
निषध नील अचलाधर मानो भये चलाचल क्रोध-बसाय ||६||
भुज-विक्रमबली बाहुबली ने लिये चक्रपति अधर उठाय |
चक्र चलायो चक्रपति तब सो भी विफल भयो तिहि ठाय ||
अतिप्रचंड भुजदंड सूंड-सम नृप-शार्दूल बाहुबलि-राय |
सिंहासन मँगवाय जास पे अग्रज को दीनों पधराय ||७||
राज रमा दामासुर धनमय जीवन दमक-दामिनी जान |
भोग भुजंग-जंग-सम जग को जान त्याग कीनों तिहि थान ||
अष्टापद पर जाय वीर नृप वीर व्रती धर लीनों ध्यान |
अचल-अंग निरभंग संग-तज संवत्सर लों एक ही थान ||८||
विषधर बांबी करी चरनन-तल ऊपर बेल चढ़ी अनिवार |
युगजंघा कटि बाहु बेढ़िकर पहुँची वक्षस्थल पर सार ||
सिर के केश बढ़े जिस माँहीं नभचर-पक्षी बसे अपार |
धन्य-धन्य इस अचल-ध्यान को महिमा सुर गावें उर-धार ||९||
कर्म नासि शिव जाय बसे प्रभु ऋषभेश्वर से पहले जान |
अष्ट-गुणांकित सिद्ध-शिरोमणि जगदीश्वर-पद लह्यो पुमान ||
वीरव्रती वीराग्रगण्य प्रभु बाहुबली जगधन्य महान |
वीरवृत्ति के काज ‘जिनेश्वर’ नमे सदा जिन-बिंब प्रमान ||१०|
(दोहा)
श्रवनबेलगुल इन्द्रगिरि, जिनवर-बिंब प्रधान |
सत्तावन-फुट उतंग तनो, खड्गासन अमलान ||
अतिशयवंत अनंत-बल- धारक बिंब अनूप |
अर्घ्य चढ़ाय नमौं सदा, जय जय जिनवर-भूप||
ओं ह्रीं वर्तमानावसर्पिणीसमये प्रथम कामदेव कर्मारिविजयी वीराधिवीर वीराग्रणी श्रीबाहुबली स्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।

arghyavali pooja

विध्यमान बीस तीर्थंकर अर्घ
जल फल आठों द्रव्य, अरघ कर प्रीति धरी है,
गणधर इन्द्रनहू तैं, थुति पूरी  करी है 
द्यानत सेवक जानके (हो), जगतैं लेहु निकार, 
सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार 
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज ।।
 ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।1।

कृतिम-अकृतिम चैत्यालय अर्घ
कृत्याकृत्रिम-चारु-चैत्य-निलयान् नित्यं त्रिलोकी-गतान्,
वंदे भावन-व्यंतर-द्युतिवरान् स्वर्गामरावासगान् ।
सद्गंधाक्षत-पुष्प-दाम-चरुकैः सद्दीपधूपैः फलैर,
नीराद्यैश्च यजे प्रणम्य शिरसा दुष्कर्मणां शांतये ।।
ॐ ह्रीं त्रिलोक सम्बन्धि कृत्रिमाकृत्रिम-चैत्यालयेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।2।

सिद्ध परमेष्ठी अर्घ
गन्धाढ्यं सुपयो मधुव्रत-गणैः संगं वरं चन्दनं,
पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरुं दीपकम् ।
धूपं गन्धयुतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये,
सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोत्तरं वाञ्छितम् ।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।3।

तीस चौबीसी का अर्घ
द्रव्य आठो, जू लीना हैं, अर्घ कर में नवीना हैं ।
पुजतां पाप छीना हैं, भानुमल जोड़ किना हैं ॥
दीप अढ़ाई सरस राजै, क्षेत्र दस ताँ विषै छाजै ।
सातशत बीस जिनराजे, पुजतां पाप सब भाजै ॥
ॐ ह्रीं पञ्चभरत-पंचैरावत-सम्बन्धी-दशक्षेत्रान्तर्गत-भुत-भविष्यत्-वर्तमान-सम्बन्धी-तीस-चौबीसी के सात सौ बीस जिनेंद्रेभ्यो-अर्घय्म निर्वपामिति स्वाहा ।4।

श्री आदिनाथ जी अर्घ
शुचि निर्मल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरु ले मन हर्षाय,
दीप धुप फल अर्घ सुलेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय ।
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर बलि बलि जाऊ मन वच काय,
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातै मैं पूजों प्रभु पाय ॥
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्ताये अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।5

श्री अजितनाथ जी अर्घ
जलफल सब सज्जे, बाजत बज्जै, गुनगनरज्जे मनमज्जे 
तुअ पदजुगमज्जै सज्जन जज्जै, ते भवभज्जै निजकज्जै ।। श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं 
मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ।।
 ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा 
।6।

श्री सम्भवनाथ जी अर्घ
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप फल अर्घ किया 
तुमको अरपौं भाव भगतिधर, जै जै जै शिव रमनि पिया ।।
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे 
निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन पावे ।।
 ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा 
।7।

श्री अभिनन्दन नाथ जी अर्घ
अष्ट द्रव्य संवारि सुन्दर सुजस गाय रसाल ही 
नचत रजत जजौं चरन जुग, नाय नाय सुभाल ही ।।
कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं 
पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ।।
 ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।8।

श्री सुमतिनाथ जी अर्घ
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु दीप धूप फल सकल मिलाय 
नाचि राचि शिरनाय समरचौं, जय जय जय 2 जिनराय ।।
हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय 
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ।।
 ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।9।

श्री पद्मप्रभु जी अर्घ
जल फल आदि मिलाय गाय गुन, भगति भाव उमगाय 
जजौं तुमहिं शिवतिय वर जिनवर, आवागमन मिटाय 
मन वचन तन त्रयधार देत ही, जनम-जरा-मृतु जाय 
पूजौं भाव सों, श्री पदमनाथ पद-सार, पूजौं भाव सों ।।
 ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।10।

श्री सुपार्श्वनाथ जी अर्घ
आठों दरब साजि गुनगाय, नाचत राचत भगति बढ़ाय ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।

तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय 
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।

ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।11।

श्री चंद्रप्रभु जी अर्घ
सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंग नमौं ।
पूजौं अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमौं ।।
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लसै ।
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।12।

श्री पुष्पदंत जी अर्घ
जल फल सकल मिलाय मनोहर, मनवचतन हुलसाय ।
तुम पद पूजौं प्रीति लाय के, जय जय त्रिभुवनराय ।।
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सनीजे ।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।13।

श्री शीतलनाथ जी अर्घ
शुभ श्री-फलादि वसु प्रासुक द्रव्य साजे ।
नाचे रचे मचत बज्जत सज्ज बाजे ।।
रागादिदोष मल मर्द्दन हेतु येवा ।
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।14।

श्री श्रेयांसनाथ जी अर्घ
जलमलय तंदुल सुमनचरु अरु दीप धूप फलावली ।
करि अरघ चरचौं चरन जुग प्रभु मोहि तार उतावली ।।
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं ।
दुखदंद फंद निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं ।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।15।

श्री वासुपूज्य जी अर्घ
जल फल दरव मिलाय गाय गुन, आठों अंग नमाई ।
शिवपदराज हेत हे श्रीपति! निकट धरौं यह लाई । 
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई ।
बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई ।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।16।

श्री विमलनाथ जी अर्घ
आठों दरब संवार, मनसुखदायक पावने ।
जजौं अरघ भर थार, विमल विमल शिवतिय रमण ।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।17।

श्री अनन्तनाथ जी अर्घ
शुचि नीर चन्दन शालिशंदन, सुमन चरु दीवा धरौं 
अरु धूप फल जुत अरघ करि, करजोरजुग विनति करौं ।।
जगपूज परम पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनो 
शिव कंत वंत मंहत ध्यावौं, भ्रंत वन्त नशावनो ।।
 ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।18।

श्री धर्मनाथ जी अर्घ
आठों दरब साज शुचि चितहर, हरषि हरषि गुनगाई ।
बाजत दृमदृम दृम मृदंग गत, नाचत ता थेई थाई ।।
परमधरम-शम-रमन धरम-जिन, अशरन शरन निहारी ।
पूजौं पाय गाय गुन सुन्दर नाचौं दे दे तारी ।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।19।

श्री शांतिनाथ जी अर्घ
वसु द्रव्य सँवारी, तुम ढिग धारी, आनन्दकारी, दृग-प्यारी ।
तुम हो भव तारी, करुनाधारी, या तें थारी शरनारी ।।
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं ।
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ।।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।20।

श्री कुन्थुनाथ जी अर्घ
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप लेरी ।
फलजुत जनन करौं मन सुख धरि, हरो जगत फेरी ।।
कुंथु सुन अरज दास केरी, नाथ सुन अरज दासकेरी ।
भवसिन्धु पर्यो हौं नाथ, निकारो बांह पकर मेरी ।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।21।

श्री अरहनाथ जी अर्घ
सुचि स्वच्छ पटीरं, गंधगहीरं, तंदुलशीरं, पुष्प-चरुं ।
वर दीपं धूपं, आनंदरुपं, ले फल भूपं, अर्घ करुं ।।
प्रभु दीन दयालं, अरिकुल कालं, विरद विशालं सुकुमालं ।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन मालं, वरभालं ।।
ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।22।

श्री मल्लिनाथ जी अर्घ
जल फल अरघ मिलाय गाय गुन, पूजौं भगति बढ़ाई 
शिवपदराज हेत हे श्रीधर, शरन गहो मैं आई ।।
राग-दोष-मद-मोह हरन को, तुम ही हो वरवीरा 
यातें शरन गही जगपतिजी, वेगि हरो भवपीरा ।।
 ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।23।

श्री मुनिसुव्रतनाथ जी अर्घ
जलगंध आदि मिलाय आठों दरब अरघ सजौं वरौं ।
पूजौं चरन रज भगतिजुत, जातें जगत सागर तरौं ।।
शिवसाथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनिगुन माल हैं ।
तसु चरन आनन्दभरन तारन तरन, विरद विशाल हैं ।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।24।

श्री नमिनाथ जी अर्घ
जल फलादि मिलाय मनोहरं, अरघ धारत ही भवभय हरं 
जजतु हौं नमि के गुण गाय के, जुगपदाम्बुज प्रीति लगाय के ।।
 ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।25।

श्री नेमिनाथ जी अर्घ
जल फल आदि साज शुचि लीने, आठों दरब मिलाय 
अष्टम छिति के राज कारन को, जजौं अंग वसु नाय ।।
दाता मोक्ष के, श्रीनेमिनाथ जिनराय, दाता0 ।  ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।26।

श्री पार्श्वनाथ जी अर्घ
नीर गंध अक्षतान, पुष्प चारु लीजिये 
दीप धूप श्रीफलादि, अर्घ तैं जजीजिये ।।
पार्श्वनाथ देव सेव, आपकी करुं सदा 
दीजिए निवास मोक्ष, भूलिये नहीं कदा ।।
 ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।27।

श्री महावीर स्वामी जी अर्घ
जल फल वसु सजि हिम थार, तन मन मोद धरौं 
गुण गाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरौं ।।
श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो 
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ।।
 ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।28।

श्री बाहुबली स्वामी जी अर्घ
हूँ शुद्ध निराकुल सिद्धो सम, भवलोक हमारा वासा ना ।
रिपु रागरु द्वेष लगे पीछे, यातें शिवपद को पाया ना ॥
निज के गुण निज में पाने को, प्रभु अर्घ संजोकर लाया हूँ ।
हे बाहुबली तुम चरणों में, सुख सम्पति पाने आया हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री-बाहुबली-जिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।29।

पञ्च बालयति जी अर्घ
सजि वसुविधि द्रव्य मनोज्ञ अरघ बनावत हैं ।
वसुकर्म अनादि संयोग, ताहि नशावत हैं ॥
श्री वासु-पूज्य-मल्ली-नेम, पारस वीर अती ।
नमूं मन-वच-तन धरी प्रेम, पांचो बालयति ॥
ॐ ह्रीं श्री-पंचबालयति-तीर्थंकरेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।30।

सोलहकारण भावना अर्घ
जल फल आठों दरव चढ़ाय द्यानत वरत करौं मन लाय।
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो।।
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय।
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति ।31।

पंचमेरु जी अर्घ
आठ दरबमय अरघ बनाय, द्यानत पूजौं श्रीजिनराय 
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।।
पांचो मेरू असी जिन धाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम 
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।।
 ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।32।

नन्दीश्वर द्वीप अर्घ
यह अरघ कियो निजहेत, तुमको अरपत हों ।
धानत किज्यो शिवखेत, भूमि समरपतु हों ॥
नन्दीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पुंज करों ।
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरों ॥
(नन्दीश्वर दीप महान चारों दिशि सोहें ।
बावन जिन मन्दिर जान सुर-नर-मन-मोहें ॥)
ॐ ह्रीं श्री-नन्दीश्वर-द्वीपें पूर्व-पश्चिमोत्तर-दक्षिण-दिशु द्व-पंचास-जिनालय-स्थित जिन प्रतिमाभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।33।

दशलक्षण धर्म अर्घ
आठो दरब संवार, धानत अधिक उछाह सों ।
भाव-आताप निवार,दस लच्छन पूजो सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री-उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण-धर्माय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।34।

रत्नत्रय अर्घ
आठ दरब निराधार, उत्तम सों उत्तम किये ।
जनम-रोग निरवार, सम्यक रत्नत्रय भजुं ॥
ॐ ह्रीं श्री-सम्यग्-रत्नत्रयाय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।35।

सप्तर्षि अर्घ
जल गंध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धुप सु लावना ।
फल ललित आठों द्रव्य मिश्रित, अर्घ कीजे पावना ॥
मन्वादि चारित्रऋद्धि धारक, मुनिन की पूजा करू ।
ता करे पातक हरे सारे, सकल आनंद विस्तरुं ॥
ॐ ह्रीं श्री-मन्वादिसप्तर्षिभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।36।

निर्वाण क्षेत्र जी अर्घ
जल गंध अक्षत पुष्प चरु फल, दीप धुपायन धरौ।
धानत करो निरभय जगत सो, जोर कर विनती करौ ॥
सम्मेद्गिरि गिरनार चंपा पावापुर कैलाश को ।
पूजो सदा चौबीस जिन, निर्वाण भूमि निवास को ॥
ॐ ह्रीं श्री-चतुर्विंश-तीर्थंकर-निर्वाण-क्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वापमिति स्वाहा ।37।

श्री सम्मेद शिखर जी अर्घ
जल गंधाक्षत फुल सु नेवज लीजिये ।
दीप धुप फल अर्घ सु लेकर चढ़ाइए ॥
पूजो शिखर सम्मेद सु मन वच काय जू ।
नरकादि दुःख टरै अचल पद पाय जू ॥
ॐ ह्रीं श्री-सम्मेद-शिखर-सिद्धक्षेत्र-पर्वते बीस-तीर्थंकर-आदि-असंख्यात-मुनि-मुक्ति-प्राप्ताय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।38।

सरस्वती (जिनवाणी) जी अर्घ
जलचन्दन अक्षत, फूल चरु, चत, दीप धूप अति फल लावै।
पूजा को ठानत, जो तुम जानत, सो नर द्यानत सुखपावै।।
तीर्थंकर की ध्वनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्य भई।।
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा ।39।

श्री ऋषिमंडल अर्घ
जल फलादिक द्रव्य लेकर अर्घ सुन्दर कर लिया ।
संसार रोग निवार भगवन वारि तुम पद में दिया ॥
जहा सुभग ऋषिमंडल विराजै पूजी मन वाच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिळत सब सुख स्वप्न में दुःख नहि कदा ॥
ॐ ह्रीं श्री-सर्वोपद्रव-विनाशन-समथार्य ऋषिमंडलाय अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।40।

श्री भरतेश्वर स्वामी जी अर्घ
भरतेश्वर महाराज थारा गुण गाऊ,
था घर में ही वैराग चरणों में धयाऊ ।
मैं अष्ट द्रव्य ले आय पूजा के लिए,
मैं पूजा भाव रचाय भव भव दुःख हरे ॥
ॐ ह्रीं श्री भरतेश्वराय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।41।

श्री गौतम स्वामी जी अर्घ
भरतेश्वर महाराज थारा गुण गाऊ,
था घर में ही वैराग चरणों में धयाऊ ।
मैं अष्ट द्रव्य ले आय पूजा के लिए,
मैं पूजा भाव रचाय भव भव दुःख हरे ॥
ॐ ह्रीं श्री महावीर-स्वमिन गौतमादि-एकादश-गणधरेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।42।

श्री जम्बू स्वामी जी अर्घ
मथुरा चौरासी धाम से निर्वाण गये ।
मैं पूजूं जम्बूस्वामी अंतिम मोक्ष गए ॥
ॐ ह्रीं श्री जम्बू-स्वामी-मुक्ति-प्राप्ताय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।43।

अंतरायनाशय अर्घ
लाभ की अंतराय के वश जीव सुख ना लहै।
जो करै कष्ट उत्पात सगरे कर्मवस विरथा रहै।।
नहीं जोर वाको चले इक छिन दीन सौ जग में फिरै।
अरहंत सिद्धसु अधर धरिकै लाभ यौ कर्म कौ हरै।।
ऊँ ह्रीं लाभांतरायकर्म रहिताभ्याम अहर्तसिद्ध परमेष्ठिभ्याम अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा ।44।

श्री मानस्तंभ जी अर्घ
जल गन्धादि द्रव्य मिलाकर निज निज पूजो चाव में ।
मान स्तम्भ पे बैठे भगवन, उनको पुजू भाव से ॥
ॐ ह्रीं श्री मान-स्तम्भोपरि-विराजमान-चतुर्मुख-जिनबिम्बेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।45।

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तप तुरंग असवार धारतारन विवेक कर |
ध्यान शुकल असिधार शुद्ध सुविचार सुबखतर ||
भावन सेनाधर्म दशों सेनापति थापे |
रतन तीन धरि सकतिमंत्रि अनुभो निरमापे ||
सत्तातल सोहं सुभटि धुनित्याग केतु शत अग्र धरि |
इहविध समाज सज राज कोअर जिन जीते कर्म अरि ||
 ह्रीं श्रीअरहनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् |
 ह्रीं श्रीअरहनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |
 ह्रीं श्रीअरहनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |

कनमनिमय झारीदृग सुखकारीसुर सरितारी नीर भरी |
मुनिमन सम उज्ज्वलजनम जरादलसो ले पदतल धार करी ||
प्रभु दीन दयालंअरिकुल कालंविरद विशालं सुकुमालं |
हरि मम जंजालंहे जगपालंअरगुन मालंवरभालं ||
 ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1|

भवताप नशावनविरद सुपावनसुनि मन भावनमोद भयो |
तातैं घसि बावनचंदनपावनतुमहिं चढ़ावनउमगि अयो ||प्रभु0
 ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|

तंदुल अनियारेश्वेत सँवारेशशिदुति टारेथार भरे |
पद अखय सुदाताजगविख्यातालखि भवत्राता पुंजधरे ||प्रभु0
 ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|

सुरतरु के शोभितसुरन मनोभितसुमन अछोभित ले आयो |
मनमथ के छेदनआप अवेदनलखि निरवेदन गुन गायो ||प्रभु0
 ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4|

नेवज सज भक्षक प्रासुक अक्षकपक्षक रक्षक स्वक्ष धरी |
तुम करम निकक्षकभस्म कलक्षकदक्षक पक्षक रक्ष करी ||
प्रभु दीन दयालंअरिकुल कालंविरद विशालं सुकुमालं |
हरि मम जंजालंहे जगपालंअरगुन मालंवरभालं ||
 ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5|

तुम भ्रमतम भंजन मुनिमन कंजनरंजन गंजन मोह निशा
रवि केवलस्वामी दीप जगामीतुम ढिग आमी पुण्य दृशा ||प्रभु0
 ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6|

दशधूप सुरंगी गंध अभंगी वह्वि वरंगी माहिं हवें |
वसुकर्म जरावें धूम उड़ावेंताँडव भावें नृत्य पवें ||प्रभु0
 ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7|

रितुफल अतिपावननयन सुहावनरसना भावनकर लीने |
तुम विघन विदारकशिवफलकारकभवदधि तारक चरचीने ||प्रभु0
 ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|

सुचि स्वच्छ पटीरंगंधगहीरंतंदुलशीरंपुष्प-चरुं |
वर दीपं धूपंआनंदरुपंले फल भूपंअर्घ करुं ||प्रभु0
 ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|

पंच कल्याणक अर्घ्यावली
फागुन सुदी तीज सुखदाईगरभ सुमंगल ता दिन पाई |
मित्रादेवी उदर सु आयेजजे इन्द्र हम पूजन आये ||
 ह्रीं फाल्गुनशुक्ला तृतीयायां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीअर0अर्घ्यं नि0 |1|

मँगसिर शुक्ल चतुर्दशि सोहेगजपुर जनम भयो जग मोहे |
सुर गुरु जजे मेरु पर जाईहम इत पूजें मनवचकाई ||
 ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला चतुर्दश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीअर0अर्घ्यं नि0 |2|

मंगसिर सित दसमी दिन राजेता दिन संजम धरे विराजै |
अपराजित घर भोजन पाईहम पूजें इत चित हरषाई ||
 ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला दशम्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीअर0अर्घ्यं नि0 |3|

कार्तिक सित द्वादशि अरि चूरेकेवलज्ञान भयो गुन पूरे |
समवसरन तिथि धरम बखानेजजत चरन हम पातक भाने ||
 ह्रीं कार्तिकशुक्ला द्वादश्यां ज्ञानमंगलप्राप्ताय श्रीअर0अर्घ्यं नि0 |4|

चैत कृष्ण अमावसी सब कर्मनाशि वास किय शिव-थल पर्म |
निहचल गुन अनंत भंडारीजजौं देव सुधि लेहु हमारी ||
 ह्रीं चैत्रकृष्णाअमावस्यायां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीअर0अर्घ्यं नि0 |5|

जयमाला
दोहा :-बाहर भीतर के जितेजाहर अर दुखदाय |
ता हर कर अर जिन भयेसाहर शिवपुर राय |1|
राय सुदरशन जासु पितुमित्रादेवी माय |
हेमवरन तन वरष वरनव्वै सहस सुआय |2|

जय श्रीधर श्रीकर श्रीपति जीजय श्रीवर श्रीभर श्रीमति जी |
भवभीम भवोदधि तारन हैंअरनाथ नमों सुखकारन हैं |3|
गरभादिक मंगल सार धरेजग जीवनि के दुखदंद हरे |
कुरुवंश शिखामनि तारन हैंअरनाथ नमौं सुखकारन हैं |4|
करि राज छखंड विभूति मईतप धारत केवलबोध ठई |
गण तीस जहाँ भ्रमवारन हैंअरनाथ नमौं सुखकारन हैं |5|
भविजीवन को उपदेश दियोशिवहेत सबै जन धारि लियो |
जग के सब संकट टारन हैंअरनाथ नमौं सुखकारन हैं |6|
कहि बीस प्ररुपन सार तहाँनिजशर्म सुधारस धार जहाँ |
गति चार ह्रषीपन धारन हैंअरनाथ नमौं सुखकारन हैं |7|
षट काय तिजोग तिवेद मथापनवीस कषा वसु ज्ञान तथा |
सुर संजम भेद पसारन हैंअरनाथ नमौं सुखकारन हैं |8|
रस दर्शन लेश्या भव्य जुगंषट सम्यक् सैनिय भेद युगं |
जुग हारा तथा सु अहारन हैंअरनाथ नमौं सुखकारन हैं |9|
गुनथान चतुर्दस मारगनाउपयोग दुवादश भेद भना |
इमि बीस विभेद उचारन हैंअरनाथ नमौं सुखकारन हैं |10|
इन आदि समस्त बखान कियोभवि जीवनि ने उर धार लियो |
कितने शिववादिन धारन हैंअरनाथ नमौं सुखकारन हैं |11|
फिर आप अघाति विनाश सबैशिवधाम विषैं थित कीन तबै |
कृतकृत्य प्रभू जगतारन हैं अरनाथ नमौं सुखकारन हैं |12|
अब दीनदयाल दया धरियेमम कर्म कलंक सबै हरिये |
तुमरे गुन को कछु पार  हैअरनाथ नमौं सुखकारन हैं |13|

जय श्रीअरदेवंसुरकृतसेवं समताभेवंदातारं |
अरिकर्म विदारनशिवसुखकारनजयजिनवर जग त्रातारं ||
 ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |

अर जिन के पदसारंजो पूजै द्रव्य भाव सों प्राणी |
सो पावै भवपारंअजरामर मोक्षथान सुखखानी ||
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)